ज्योति-पर्व दिवाली: दीपावली, दीपमाला, दीपमालिका, दिवाली नामों से पुकारा जानेवाला यह ज्योति-पर्व वर्षा ऋतु के अंत तथा शरद ऋतु के आगमन की खुशी में मनाया जाता है। प्रतिवर्ष कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की अमावस्या को मनाया जानेवाला यह पर्व हिन्दुओं के सांस्कृतिक पर्वों में से एक है। यह अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण त्यौहार है। इसका सांस्कृतिक महत्त्व तो यह है कि वह ‘तमसो मा ज्योतिर्मय’ का सन्देश देता है। भगवन राम अज्ञान, अन्याय, अत्याचार, पाप के प्रतिक राक्षसराज रावण पर विजय पाने के बाद इसी दिन लंका से अयोध्या लौटे थे। अयोध्यावासियों ने अपने बिछुड़े, मर्यादापुरुषोत्तम विजयश्री की माला से सुशोभित राम का स्वागत करने के लिए घर-घर दीप जलाये थे। अतः एक ओर यह पर्व आसुरी शक्तियों पर दैवी वृत्तियों की विजय का प्रतिक है तथा दूसरी ओर हिन्दुओं के सर्वाधिक पूज्य देवता की पावन स्मृति में मनाया जाता है।
ज्योति-पर्व दिवाली पर निबंध
शरद ऋतु वर्षा ऋतु के बाद आती है। प्रकृति में नया सौन्दर्य और नया निखार दिखने लगता है – निरभ्र आकाश, जगमग करते तारे और चाँदनी, आकाश में उड़ते हुए खंजन पक्षियों की टोलियाँ, उमस के स्थान पर गुलाबी ठंडक, सरोवरों तथा नदियों के निर्मल स्वच्छ जल में खिले कमल मानव को भी प्रेरणा देते हैं कि वर्षा ऋतु की कीचड़, गन्दगी, कीड़े-मकोड़ों तथा रोगों के अस्वस्थकर वातावरण से मुक्त होने के लिए स्वच्छता-अभियान आरम्भ करें-घरों की सफाई करें, उन्हें सजायें-संवारें। वातावरण को स्वच्छ बनाने की दृष्टि से इस पर्व का महत्त्व है।
तीसरे, दीपावली के दिनों में ही खरीफ की फसल पकने लगती है। ईख, नया धान किसानों के खलिहानों में आने लगता है। अतः स्वयं उपभोग करने से पूर्व देवता को भोग लगाने की प्रथा का अनुसरण करते हुए धन-धान्य की देवी लक्ष्मी और मंगल-कल्याण के देवता गणेश जी की पूजा की जाती है।
दीपावली का मुख्य पर्व तो कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है परन्तु उसका प्रारम्भ कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी से हो जाता है। इस दिन को धनतेरस कहते हैं, नए-नए बर्तन खरीदना शुभ एवं लक्ष्मी की कृपा का संकेत माना जाता है। इस दिन घर के द्वार पर एक दीपक जलाकर यमराज की पूजा की जाती हैं। अगले दिन चतुर्दशी को नरक-चौदस कहते हैं। पुराणों के अनुसार भागवान कृष्ण ने इसी दिन नरकासुर नामक राक्षस का वध कर उसके कारागार से बन्दी सोलह हजार कन्याओं का उद्धार किया था। अमावस्या से कई दिन पहले दीपावली मनाने की तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। बाजारों में दुकानें विशेषकर खील-बताशों, मिट्टी या प्लास्टिक के खिलौनों, मूर्तियों, चित्रों, मोमबत्तियों, कंडीलों, मिठायों, पटाखों, नए-नए वस्त्रों की दुकानें सजने लगती हैं और लोगों की भीड़ उन्हें खरीदने के लिए उमड़ने लगती है।
फिर आती है अमावस्या। दिन में संकटमोचन हनुमान जी की पूजा होती है। कहीं दिवार पर गेरू से हनुमान जी की आकृति बनाकर तो कहीं उनका चित्र चिपकाकर। रात का अन्धकार ज्यों-ज्यों अपने पैर पसारता जाता है, उसे निरस्त करने के लिए घरों के द्वार पर, चबूतरों, दीवारों, छत की मुंडेरों पर दीपक, मोमबत्तियाँ जलने लगती हैं, बच्चे पटाखे छोड़ने लगते हैं, फुलझड़ियों, अनारों तथा आतिशबाजी के नए-नए उपकरणों से सारा वातावरण आलोकित हो उठता है।
पंचांग देखनेवाले पंडित-पुरोहित लक्ष्मी-पूजन की शुभ घड़ी की घोषणा करते हैं और हिंदू लोग उसी शुभ घड़ी में लक्ष्मी-गणेश का पूजन आरम्भ करते हैं। पूजा-स्थल में खड़िया मिट्टी, गेरू तथा फूलों से रंगोली सजाई जाती है, सारा कक्ष नई कपास की बत्तियों तथा नए तिल के तेल से भरे द्वीपों की जगमग से आलोकित हो उठता है। पहले विघ्न-विनाशक, मोदकप्रिय, मुद्मंगलदाता गणेश का तदुपरांत धन-धान्य की देवी लक्ष्मी का विधिवत् पूजन होता है। गणेश-वन्दना के श्लोक और लक्ष्मी जी की आरती गाई जाती हैं। धन के देवता कुबेर का भी स्मरण किया जाता है, उनकी स्तुति में कुछ श्लोक पढ़े जाते हैं। अन्त में सब प्रार्थना करते हैं कि वर्ष-भर धन-सम्पत्ति से घर भरा रहे, कोई विघ्न, कोई रोग, कोई कष्ट न हो। घर के लोग एक-दुसरे को प्रसाद रूप में मिठाई खिलाते हैं। इस प्रकार देवी-पूजन के साथ भविष्य की मंगल कामना करते हुए यह त्यौहार बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
मानव मन की विकृतियों के प्रभाव से यह पावन पर्व भी नहीं बच पाया है। कुछ लोग यह विश्वास कर कि उस दिन जो जुए में जीतता है उस पर वर्ष भर लक्ष्मी की कृपा रहती है, जुआ खेलते हैं और अपने पसीने की कमाई गँवा बैठते हैं। आतिशबाजी में धन अपव्यय तो होता ही है, धन को फूँक कर राख बनाया जाता है, उसके कारण पड़ौसवाले से झगड़े भी हो जाते हैं, बच्चों के हाथ-पैर जल-झुलस जाते हैं, कहीं-कहीं आग भी लग जाती है। अतः सावधान रहकर यह मंगलमय पर्व मनाना चाहिए और जीवन में भी ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का सिद्धांत अपनाकर सात्विक जीवन बिताने का संकल्प करना चाहिए। लक्ष्मी की मूर्ति को धातुमयी न बनाकर उसे मंगल, शुभ, सात्विकता की प्रतिमा मानकर उसका पूजन करना चाहिए, केवल टके पर टकटकी लगाना लक्ष्मी-पूजन नहीं है।
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