गाइये गणपति जग वन्दन, शंकर सुवन भवानी के नन्दन
सिद्धि-सदन गजवदन विनायक, कृपासिंधु सुन्दर सब लायक
मोदक प्रिय मुदमंगल दाता, विद्या वारिधि बुद्धि विधाता
गणेश जी को शिव और भवानी का पुत्र कहा गया है, संपूर्ण ऋद्धियों-सिद्धियों का दाता कहा गया है, उन्हें विघ्नविनाशक और मंगलदाता कहा गया है, विद्या वारिधि तथा सद्बुद्धि प्रदान करने वाला कहा गया है। गजवदन द्वारा उनके वर्तमान स्वरूप का संकेत भी है। पुराणों के अनुसार पार्वती जी ने अपने शरीर के मैल से एक सुन्दर पुतला बनाया, फिर उसमें प्राण फूँक दिये, उसे अपना पुत्र घोषित कर दिया। भगवान शंकर को इस बात का ज्ञान नहीं था क्योंकि वे तपस्या करने किसी जंगल में गये हुए थे। जब लौटे तो उन्होंने गणेश को द्वार पर पहरा देते हुए देखा। वस्तुतः पार्वती भीतर स्नान कर रही थीं और पुत्र गणेश द्वार पर खड़े थे। उनको निर्देश था कि कोई भी व्यक्ति भीतर न घुसे। जब भगवान शंकर ने भीतर जाना चाहा तो गणेश ने उन्हें रोक दिया, बहुत समझाने-बुझाने पर भी शंकर को भीतर नहीं जाने दिया। तब क्रोधावेश में शंकर ने त्रिशूल से उसका सिर काट डाला और भीतर चले गये। जब पार्वती जी को पता चला तो पुत्र-शोक में विह्वलहोकर रोने-धोने, विलाप करने लगीं। अपनी अर्धांगिनी को प्रसन्न करने के लिए शिव ने एक हाथी के बच्चे का सिर काटकर उसे गणेश के धड़ से जोड़ दिया वह जीवित हो उठे। इसीलिए उन्हें वक्रतुण्ड कहा गया है। शंकर तो आशुतोष हैं अतः उन्होंने यह वरदान भी दिया कि भविष्य में प्रत्येक शुभ कार्य करने से पूर्व गजानन की पूजा-अर्चना हुआ करेगी। इसीलिए हिन्दू प्रत्येक शुभ कार्य करने से पहले गणेश जी की पूजा-अर्चना करते हैं, ‘गणेशाय नमः’से कार्य आरम्भ करते हैं। गुरु भी पहले दिन अपने शिष्य की पट्टी पर ‘गणेशाय नमः‘ लिखने के बाद उसे पढ़ाना-लिखना सिखाता है।
विद्यावारिधि तथा बुद्धिविधाता कहने का सम्बन्ध एक पौराणिक कथा से है। एक बार देवताओं में होड़ लगी कि किस देवता की पूजा सर्वप्रथम की जाये। निर्णय हुआ कि जो भी देवता अपने वाहन पर बैठकर पृथ्वी की प्रदक्षिणा पूरी कर ले वही प्रथम पूजा का अधिकारी होगा। सभी देवता अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर पृथ्वी की परिक्रमा करने चल पड़े। गणेश जी का वाहन है चूहा तथा उनका शरीर है भीमकाय ‘वक्रतुण्ड: महाकाय सूर्यकोटि सम प्रभा।‘ अतः गणेश जी ने पृथ्वी पर राम नाम लिखा और उसी के चारों घूम गये। उन्होंने तर्क दिया कि राम सर्वव्यापक हैं, राम का नाम राम से भी बड़ा है। अतः उनहोंने उसके चारों ओर घूम कर धरती की प्रदक्षिणा कर ली है। देवताओं ने उनका तर्क मान लिया और गणेश सर्वप्रथम पूजा के अधिकारी बन गये।
वह विद्यावारिधि कहे जाते हैं। उनके लिखने की गति अत्यन्त तीव्र है और उनके लिखे हुए अक्षर अत्यन्त सुन्दर होते हैं। यह बात जानकर ही महर्षि वेदव्यास ने महाभारत और अठारह पुराणों की सामग्री बोल-बोल कर गणेश जी से ही लिखवाई। उनकी शर्त थी कि उनके बोले वचनों को लिखने में एक पल भी देर न हो और यह कठिन कार्य केवल गणेश ही कर सकते थे। ऐसे विघ्नविनाशक, मंगलकारी, बुद्धिविधाता गणेश की पूजा महाराष्ट्र के घर-घर में गणेश चतुर्थी को होती है। यह पारिवारिक धार्मिक अनुष्ठान मात्र न रहकर महाराष्ट्र में सामूहिक पर्व के रूप में मनाया जाता है। इस पर्व के लिए नाना रूपाकार की गणेश प्रतिमाएँ वर्षभर बनती रहती हैं। गणेश चतुर्थी के दिन घरों में, पूजा-पंडालों में गणेश की प्रतिमाओं का प्रतिष्ठापन होता है, व्यापक भजन-पूजन, कीर्तन, स्तवन होता है। अन्त में इन प्रतिमाओं को सजे-सजाये वाहनों पर अधिष्ठित कर शोभायात्रा (जुलूस) निकाली जाती है, वाहन के चारों ओर, आगे-पीछे गाते-बजाते, नाचते, लोग जलाशय या सागर के तट पर पहुँच कर मन्त्रोच्चार के साथ इन मूर्तियों का विसर्जन करते हैं और नारा लगाते हैं ‘गणपति बापा मोरिये‘ अर्थात् हे गणपति अगले वर्ष पुनः मिलेंगे।
महाराष्ट्र में इस धार्मिक, सांस्कृतिक पर्व की राजनीति से जोड़ने का श्रेय महाराष्ट्र के स्वतंत्रता-सेनानी बाल गंगाधर तिलक को है। ब्रिटिश सरकार ने लोगों के एकत्र होने, संगठित होकर सभा करने पर रोक लगा रखी थी। परन्तु धार्मिक उत्सवों-अनुष्ठानों पर यह पाबन्दी नहीं थी। इसी का लाभ उठाकर तिलक महाराज ने गणेशोत्सव का उपयोग स्वतंत्रता-सेनानियों के एकत्र होने, विचार-विनिमय करने, राजनितिक कार्य करने, संगठित करने के लिए किया।
आज स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद वह उद्देश्य समाप्त हो गया है। आज तो वह महाराष्ट्र के धार्मिक-सांस्कृतिक पर्व के रूप में ही धूमधाम तथा हर्षोल्लास से मनाया जाता है।