अजाबराय के पुत्र नवाबराय, जो बाद में मुंशी प्रेमचन्द के नाम से विख्यात हुए और जिनके विपुल कथा-साहित्य ने भारती के भण्डार को समृद्ध किया तथा उसे नयी दिशा दी का जन्म 31 जुलाई 1880 को बनारस से चार मील दूर लमही नामक गाँव में हुआ था। कायस्थ परिवार की परम्परा तथा आजीविका की सुविधा के लिए उनको उर्दू सीखने के लिए एक मौलवी साहब के पास भेजा गया और उन्होंने उर्दू पढ़ी। उनका उर्दू भाषा पर पूर्ण अधिकार था। यही कारण है कि उनकी आरम्भिक रचनाएँ उर्दू में लिखी गयीं। हिन्दी में उनका पदार्पण सन् 1916 में हुआ और तब से लेकर मृत्यु पर्यन्त (1936 ई.) वह हिन्दी में लिखते रहे। इस बीस वर्ष की अवधि में उन्होंने लगभग एक दर्जन उपन्यास और तीन सौ से अधिक कहानियाँ लिखीं; हंस, माधुरी, मर्यादा, जागरण पत्रिकाओं का सम्पादन किया और इस प्रकार अपनी रचनाओं से हिन्दी के रिक्त भंडार को सम्पन्न बनाया। जागरूक साहित्यकार पर अपने युग की परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है और वे उसकी जीवन-दृष्टि का निर्माण करती हैं, उनकी रचनाओं को दिशा देती हैं। प्रतिभासम्पन्न और देश तथा समाज की समस्याओं के प्रति जागरूक लेखक परम्परा, परिपाटी और लीक को त्याग कर अपना पथ स्वयं चुनता है, बनाता है और उस पर निष्ठापूर्वक चलता है। प्रेमचन्द के युग में एक और स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना कर धार्मिक तथा सामाजिक क्षेत्र में व्याप्त अंधविश्वासों और कुरीतियों को जड़ से उखाड़ने का अभियान आरम्भ किया और दूसरी ओर
महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराने के लिए संघर्ष तेज हो गया। उनके असहयोग आन्दोलन और सत्याग्रह आन्दोलन ने देश-भर की सोई जनता को जगा दिया। उनके जागरण-शंख ने तत्कालीन लेखकों, कवियों और बुद्धिजीवियों के मन में भी देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम के भाव जगाये। प्रेमचन्द इन साहित्यकारों में मूर्धन्य थे। वह गाँव में पैदा हुए, गाँव में पले, अतः गाँवों और विशेषतः किसानों की दयनीय स्थिति से द्रवित हो उठे। उहोंने स्वयं गरीबी की मार झेली थी, पिता के देहावसान के बाद गृहस्थी का भार संभालने के लिए अनेक पापड़ बेले थे। वह जानते थे कि भूख की आग में व्यक्ति कैसी वेदना झेलता है, तड़पता है, अपमान सहने को विवश होता है। अतः उनके कथा-साहित्य के मुख्य विषय हैं – समाज सुधार, धार्मिक अंधविश्वासों पर प्रहार, राजनितिक जीवन का चित्र तथा देशवासियों में राजनितिक चेतना जगाना, गाँव का विशेषतः किसानों का जीवन। उनका उपन्यास गोदान कृषक जीवन और कृषक संस्कृति का महाकाव्य और भारतीय किसान के जीवन की त्रासदी कहा जाता है। ग्रामीण जीवन के दयनीय चित्र, नागरिक जीवन में व्याप्त प्रदर्शन-प्रियता, झूठी शान, सामाजिक एवं राजनितिक जीवन में हो रही हलचलों के चित्र इतने यथार्थ, प्रामाणिक एवं मार्मिक है कि उनके कथा-साहित्य को युग का दर्पण कहा जाता है।
आरम्भ में प्रेमचन्द गांधी जी के भक्त थे, गांधीवाद के समर्थक थे। उनके उपन्यास ‘रंगभूमि’ का सूरदास गांधी जी का प्रतिरूप है परन्तु जब रूस की क्रान्ति की सफलता ने सारी दुनिया का ध्यान मार्क्सवादी, क्रन्तिकारी विचारधारा की ओर आकृष्ट किया और स्वयं प्रेमचन्द ने अनुभव किया कि भारत की आर्थिक दुर्दशा का कारण एक ओर ब्रिटिश शासकों द्वारा तथा दूसरी ओर देश के जमींदारों, साहूकारों, महाजनों द्वारा शोषण है तो उनकी अंतिम रचनाएँ – गोदान, पूस की रात, कफन में देशवासियों की शोचनीय, हृस्य को द्रवित करनेवाली आर्थिक दशा का मार्मिक वर्णन ही नहीं है, उस स्थिति के लिए उत्तरदायी व्यक्तियों, संस्थाओं, आर्थिक व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा भी दी गयी है। ‘गोदान’ का गोबर, पूस की रात और ठाकुर का कूँआ की नायिकाएँ व्यवस्था के विरुद्ध अपना आक्रोश प्रकट करते हैं। गोबर मिल-मालिक खन्ना और उसकी मिल के विरुद्ध आन्दोलन करता है और अन्य मजदूरों के साथ मिलकर मिल को आग लगा देते हैं। इसीलिए ‘गोदान’ को आनेवाले युग की प्रसव-पीड़ा का चित्र कहा गया है।
प्रेमचन्द साहित्य को न तो मनोरंजन की वस्तु, विलास का उपकरण मानते थे और न वह कला कला के लिए सिद्धान्त के समर्थक थे। उनका कथन है ‘मैं और चीजों की तरह कला को भी उपयोगिता की तुला पर तौलता हूँ। साहित्य यथार्थ और आदर्श का समन्वय है। यही कारण है कि उन्हें आदर्शोंन्मुख यथार्थवादी कलाकार कहा जाता है।
प्रेमचन्द का साहित्य अनेक साहित्यिक गुणों से सम्पन्न होते हुए भी जनता के लिए लिखा गया साहित्य है। अतः उनकी भाषा सरल, सहज, मुहावरेदार भाषा है। उसमें व्यक्ति की बाह्य रुपरेखा, उसके आन्तरिक मनोभावों का चित्रण करने की अपूर्व क्षमता है। उनकी शैली चित्रात्मक है, अतः चाहे गाँव की चौपाल या सड़क का चित्र हो, चाहे कस्बे की शराब की दुकान का चित्र हो और चाहे दार्शनिक मेहता या ऊपर से तितली और भीतर से मधुमक्खी मालती जैसी युवती का चित्र हो, सब को पढ़ते समय हमें लगता है कि व्यक्ति हमारे सामने खड़ा है, घटना हमारी आंखों के सामने हो रही है। अपने इन्हीं गुणों के कारण प्रेमचन्द अपने जीवनकाल में ही कथा-सम्राट कहे जाने लगे और लगभग सत्तर वर्ष बाद भी उनका साहित्य प्रासंगिक हैं।