मनुष्य में तीन प्रकार की शक्ति होती है – शारीरिक शक्ति या बहुबल, बौद्धिक शक्ति अर्थात् प्रतिभा तथा आध्यात्मिक या आत्मिक शक्ति अर्थात् पवित्र भाव एवं उदात्त विचार। जहां तक शारीरिक शक्ति का सम्बन्ध है प्रकृति ने पुरूष को अधिक शक्तिशाली और सुदृढ़ शरीर दिया है और इसी कारण उसने नारी पर अपना आधिपत्य और स्वामित्व स्थापित किया है, उसका उत्पीड़न और शोषण किया है। इस ईश्वरप्रदत्त शक्ति का उसने सदुपयोग कम दुरूपयोग अधिक किया है। संसार में युद्धों का कारण शक्ति के बल पर अपनी प्रभुता दिखाना ही रहा है।
जहाँ तक बौद्धिक शक्ति या प्रतिभा का सम्बन्ध है, पुरुष के कार्य, उपलब्धियाँ नारी की तुलना में अधिक रहें हैं। विज्ञान के क्षेत्र में पुरुषों ने ही नए-नए आविष्कार और अनुसंधान किये हैं। ललित कलाओं और साहित्य के क्षेत्र में पुरुषों का कृतित्व अधिक मूल्यवान है-परिमाण की दृष्टि से भी और गुणवत्ता की दृष्टि से भी। विश्वविख्यात कवि, नाटककार, उपन्यासकार, चित्रकार, संगीतज्ञ, वास्तुक्लाविद्, शिल्पकार पुरुष ही रहे हैं। महिलाओं की संख्या कम ही रही है। परन्तु इसका कारण रहा है कि पुरुषों को अपनी प्रतिभा का विकास करने और उसका उपयोग करने की सुविधाएँ और अवसर अधिक प्राप्त होते हैं। शिक्षा के क्षेत्र को ही लें। स्त्री को शास्त्राध्ययन की स्वतंत्रता ही नहीं थी, उसका शास्त्राध्ययन पाप माना जाता था। उसे घर की चारदिवारी में चूल्हा-चक्की तक सीमित रखा गया। ऐसी स्थिति में उसकी प्रतिभा से ऐसी कृतियाँ न दे सकी जो विश्व को चमत्कृत क्र सकें तो इसके लिए उत्तरदायी वे नहीं, पुरुष का विधि-विधान है, पुरुष-प्रधान समाज और उसकी सोच एवं कूटनीति है। वह नहीं चाहता कि स्त्री उसके समकक्ष हो जाये। उसकी ईर्ष्या, द्वेष, स्वामित्व की भावना स्त्री के पिछड़ेपन के लिए उत्तरदायी रही है। वर्तमान युग में जब से स्त्री को शिक्षा की सुविधा मिलनी आरम्भ हुई है उसने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है, उत्तरदायी पदों पर आसीन होकर कर्त्तव्यपरायणता एवं कार्यकुशलता का परिचय दिया है। जिन क्षेत्रों पर केवल पुरुषों का एकाधिकार था जैसे सेना, पुलिस, वायुयान-चलाना आदि उनमें भी स्त्रियों ने अपनी दक्षता से विस्मय विमुग्ध कर दिया है।
जहाँ तक आत्मिक शक्ति का प्रश्न है पुरुष नारी की तुलना में कहीं नहीं टिक पाता। प्रसाद जी ने अपने एक नाटक में लिखा था-कठोरता का उदाहरण है पुरुष और कोमलता की प्रतिमूर्ति है नारी। यहाँ कठोरता का तात्पर्य शारीरिक बल से नहीं है, आचार-व्यवहार से है। कठोर हृदयवाला व्यक्ति संसार का कभी उपकार नहीं कर सकता, केवल अपकार ही कर सकता है। इसके विपरीत नारी अपने कोमल स्वभाव, सौम्य गुणों से अपनी सन्तान, अपने पति, अपने परिवार और समाज सबका हित करती है। गोस्वामी तुलसीदास के अनुसार:
परहित सरित धर्म नहीं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।
इस कसौटी पर नारी धर्म के मार्ग पर चलनेवाली है और पुरुष अधम है, पापी है। नारी ने अपने सभी रूपों-पत्नी, माता बहिन, पुत्री-में अपने सात्विक गुणों-दया, ममता, त्याग, सेवा, सहिष्णुता का परिचय दिया है। बच्चा ही भविष्य का नागरिक बनता है। बचपन में जो संस्कार उसके मन पर पड़ते हैं वे ही उसका भविष्य निर्धारित करते हैं, उसे सज्जन या दुर्जन बनाते हैं और बच्चे को शिक्षा-दीक्षा, संस्कार देती है माता। इस प्रकार देश के नागरिकों का निर्माण करनेवाली नारी ही है। सृष्टि को चलानेवाली भी माता है। पुरुष तो केवल बीज डालता है, शेष कार्य तो नारी ही करती है। खेत में बीज बोने का महत्त्व उतना नहीं है जितना उसके अंकुरित होने, पल्लवित-पुष्पित होने और फल देने का। गर्भ-धारण करने के बाद गर्भ में भ्रूण का विकास, शिशु के जन्म लेने पर उसका पालन-पोषण, उसकी शिक्षा-दीक्षा का कार्य नारी ही करती है। इस दृष्टि से भी पुरुष की तुलना में नारी का महत्त्व अधिक है। पुरुष यदि निर्माण करता है तो ध्वंस भी। परन्तु स्त्री केवल सृजन करती है। अपने त्याग, सेवा, ममता, आदि गुणों से वह सबका उपकार करती है। इसीलिए जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में लिखा है:
नारी तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास रजत नग परछ तल में।
पियूष स्रोत सी बहा करो
जीवन के सुन्दर समतल में।।
नारी कुसुम की तरह कोमल है, गंगा की तरह पवित्र है, हिमालय की तरह विशाल हृदय है, सागर सी गम्भीर है। समय आने पर कुसुमादपि कोमल कामिनी बज्रादपि कठोर बनकर, शक्ति स्वरूपा होकर, दुर्गा बन कर महिषासुर का संहार भी कर सकती है।
इसी लिए नारी पुरुष की तुलना में गरिमामंडित कही गयी है, उसे देवी कहा गया है।