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विकलांगों के प्रति हमारी दृष्टि और कर्त्तव्य पर निबंध Hindi Essay on Disability

विकलांगों के प्रति हमारी दृष्टि और कर्त्तव्य पर विद्यार्थियों के लिए हिंदी निबंध

विकलांग शरीर प्रकृति या ईश्वर का अभिशाप है, पृथ्वी पर भार है, समाज को चुनौती है, परिवार पर बोझ है। विकलांग व्यक्ति वह होता है जिसके शरीर का कोई अंग या तो जन्म से ही नहीं होता है जैसे किसी के दो की बजाये एक गुर्दा हो या उसका अंग स्वस्थ न होकर दोषपूर्ण हो जैसे अंधों, गूंगे-बहरों, कोढियों, लूले-लंगड़ों को विकलांग कहा जाता है। कुछ विकलांग ऐसे भी होते हैं जिनके शरीर के काम करनेवाले अंग तो सामान्य और स्वस्थ होते हैं, सुचारू ढंग से काम करते हैं परन्तु उनमें मानसिक विकृति होती है, उनका बौद्धिक विकाश अधुरा रहता है; वे पूरी तरह पागल तो नहीं होते पर अर्ध विक्षिप्त होने के कारण सामान्य-स्वस्थ व्यक्तियों की तरह काम नहीं क्र पाते। कुछ बच्चे टेढ़े अंगवाले होते हैं अत: वे उठने-बैठने में असमर्थ होते हैं। कुछ बच्चों के शरीरांग पशु-पक्षियों जैसे होते हैं। इन्हें प्रकृति का क्रूर उपहास कहा जाता है।

विकलांगों का दूसरा वर्ग वह है जिसमें व्यक्ति जन्म से तो स्वस्थ होता है, उसके शरीर में सब अंग सामान्य व्यक्तियों के समान होते हैं पर किसी दुर्घटना के करण वे अपंग हो जाते हैं – किसी की टांग रेल के पहिये के निचे आ जाती है और उसे टांग काटना पड़ता है, किसी का हाथ चारा काटने की मशीन में आ जाता है, किसी की आँख में तेजाब पड़ जाने से वह अन्धा हो जाता है।

विकलांगता का तीसरा कारण है हमारे अंधविश्वास। चेचक निकलने पर उसे माता का प्रकोप मानकर समुचित इलाज नहीं कराया जाता और उसकी आँखें चली जाती हैं। विकलांग व्यक्ति शारीरिक और मानसिक कष्ट भोगता है। अंधा बालक या मनुष्य कमरे की चारदिवारी में अकेला पड़ा रहने को विवश है, कोई काम-काज  नहीं, मनोरंजन का साधन नहीं, अपने माता-पिता, भाई-बहन की सूरत तक देखने को तरस जाता है। उसके पास बुद्धि तो है, शरीर के अन्य अवयव भी पुष्ट हैं पर नेत्रों में ज्योति न होने के कारण वह कुछ भी नहीं कर सकता। गूंगा बोल न पाने के कारण, बहरा सुन न पाने के कारण कैसा अनुभव करता होगा, उसे कितनी पीड़ा, कुंठा होती होगी, इसकी कल्पना आप भली-भाँति क्र सकते हैं। फिर यदि परिवार के अन्य सदस्य उसे भर समझ कर उसके प्रति दुर्व्यवहार करें, उसकी उपेक्षा करें, समाज उसे बोझ समझ कर उसका तिरस्कार करे, नासमझ कठोर हृदयवाले व्यक्ति उससे घृणा करें, उसका मजाक उड़ायें, उसको गलियाँ डे तो उसका जीवन नरकतुल्य हो जाता है।

प्राचीन काल में विकलांगता को ईश्वर का कोप या प्रकृति का उपहास समझ क्र उसके प्रति दया का भाव अपनाया जाता था। उसकी स्थिति वैसी ही थी जैसी तुलसी ने विनयपत्रिका के एक पद में भगवान के सामने भक्त की बताई है -तू दयालु दीन हौं तू दानी हौं भिखारी। वह करुणा, दया, सुहानुभूति का पात्र समझा जाता था और उसके साथ वही व्यवहार किया जाता था जो कोई उदार दानी भिखारी के साथ करता था। समाज के ऐसे व्यवहार से वह जीता तो था, परन्तु भावुक, संवेदनशील मन को कितना आघात लगता होगा, इसकी कल्पना आज के मनोविज्ञान के युग में सहज ही की जा सकती है।

आज के युग में व्यक्ति में अस्मिता का, आत्म-सम्मान का भाव जाग उठा है। वह किसी की दया, कृपा, करुणा का पात्र, दीनहीन न समझकर उन्हें अपना मित्र, सहयोगी समझ कर उनकी सहायता करनी चाहिए, उन्हें आत्म-निर्भर बनने का अवसर प्रदान करना चाहिए। अतः हमारा कर्त्तव्य कि हम उनके आत्मसम्मान की रक्षा करते हुए उनके साथ सहृदयता, सहानुभूति और सहयोग का आचरण करें, उनके पुनर्वास के लिए हर-सम्भव उपाय करें। यह कार्य व्यक्ति, समाजसेवी संस्थाएँ और प्रशासन तीनों क्र सकते हैं।

पहला कर्त्तव्य है विकलांगता को रोकने का। आज चिकित्साशास्त्र ने पंगु बनानेवाले रोगों को जड़ से मिटने के लिए टीकों का निर्माण क्र लिया है। अंग्रेजी में कहावत है – ‘Prevention is better than cure‘ अर्थात् बचाव में ही सुरक्षा है। पोलियो, चेचक, खसरा, हैपेटाईटिस आदि रोगों के टिके समय रहते बचपन में ही लगवा दिये जाएँ तो इन रोगों से बचा जा सकता है।

अब रही उनकी समस्या जो विकलांग हैं। विकलांगों को प्रशिक्षण देकर, उन्हें आत्म-निर्भर और कुंठा-रहित किया जा सकता है। अन्धों को प्रशिक्षण देकर उन्हें कुर्सी बुनने, मशीनें चलाने, टाइप करने आदि के काम में लगाया जा सकता है। गूंगों-बहरों को चित्रकला, मूर्तिकला की शिक्षा दी जा सकती है। इसी प्रकार अन्य विकलांगों को भी उनकी शारीरिक क्षमता देखकर कुछ कार्यों में, दस्तकारी के कामों में लगाया जा सकता है। अतः विकलांगों के लिए विकलांग प्रशिक्षण-केन्द्र, विकलांग पुनर्वास केन्द्र खोलने चाहिएँ। दुसरे, अर्धसरकारी नौकरियों में विकलांगों के लिए आरक्षण होना चाहिए। मैंने नेत्र विहीन प्रतिभाशाली छात्रों को सफल अध्यापक के रूप में कार्य करते हुए देखा है। अतः विकलांगता को ऐसी बाधा, ऐसा रोग न समझना चाहिए जो असाध्य हो और जिसका कोई इलाज ही नहीं है। वह असाध्य रोग नहीं है।

सारांश यह है कि विकलांग के प्रति हमारे कर्त्तव्य हैं –

  1. जिस परिवार में विकलांग ने जन्म लिया है या किसी रोग अथवा दुर्घटना के कारण वह विकलांग हो गया है, उस परिवार के सदस्य उसे परिवार के ऊपर न तो बोझ समझें और न यह कहें कि हे ईश्वर, तू इसे धरती से उठा ले।
  2. समाज का कर्त्तव्य है कि वह विकलांगों को तिरस्कार, घृणा की दृष्टि से न देखे, उसके प्रति सहृदयता, सुहानुभूति का व्यवहार करे।
  3. हमें चाहिए कि हम विकलांग की भावनाओं को भी समझें और उसके आत्म-सम्मान के भाव को ठेस न लगने दें, उसके साथ मित्रता, सहयोग का आचरण करें ताकि वह हीन-भावना से ग्रस्त न हो।
  4. समाजसेवी संस्थाओं और सरकार को विकलांगों के प्रशिक्षण के लिए विकलांग प्रशिक्षण-केन्द्र तथा उनके पुनर्वास के लिए विकलांग पुनर्वास-केन्द स्थापित करने चाहिएँ। ये उपाय अपनाकर हम विकलांगों के शारीरिक-मानसिक कष्टों को तो दूर कर ही सकेंगे, उन्हें कार्य करने का अवसर देकर समाज और देश के विकास में भी योगदान कर सकेंगे।

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