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कश्मीर समस्या पर विद्यार्थियों और बच्चों के लिए निबंध

कश्मीर समस्या पर विद्यार्थियों और बच्चों के लिए निबंध

आज की कश्मीर समस्या को जानने और समझने के लिए हमें इतिहास में कुछ पीछे जाना होगा। 1947 में जब गांधी जी के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज की स्थापना तथा अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों ने ब्रिटिश शासन को बाध्य कर दिया कि वे भारत को स्वतन्त्र कर दें, तब जाते-जाते भी उन्होंने अपनी धूर्तता एवं कूटनीति नहीं छोड़ी – देश का विभाजन कर दिया और उस समय की सम्पूर्ण भारत में बिखरी साढ़े तीन सौ से अधिक रियासतों के सम्बन्ध में निर्णय किया कि वे अपनी इच्छा से भारत या पाकिस्तान में विलय कर सकती हैं या फिर स्वतंत्र रह सकती हैं। जमीनी असलियत के कारण इन रियासतों के लिए स्वतंत्र राज्य होना सम्भव नहीं था। हैदराबाद ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित किया, भारत से युद्ध भी आरम्भ कर दिया परन्तु भारतीय सेना के आगे निजाम टिक न सका और उसे विवश होकर भारत का अंग बनना पड़ा। शेष सभी रियासतें अपने परिवेश, भौगोलिक स्थिति के अनुरूप भारत में मिल गयीं, कुछ पाकिस्तान में। कश्मीर पर उस समय एक हिन्दू राजा का शासन था और वहाँ का प्रमुख राजनीतिक दल था नेशनल कान्फ्रेंस। इस दल के अध्यक्ष कश्मीर के लोकप्रिय नेता शेख अब्दुला थे। वे दोनों, राजा और शेख अब्दुल्ला असमंजस की स्थिति में ‘पहले मारे सो मीर’ की उक्ति में विश्वास करते हुए पाकिस्तान ने अमेरिका की शै पर खुंखार कबाइलियों की सैना बनाकर कश्मीर पर आक्रमण कर दिया और असावधान कश्मीर में कुछ दूर तक घुस भी आये। उस विषम स्थिति में राजा तथा शेख अब्दुल्ला दोनों ने लिखित रूप में भारत की सरकार से आग्रह किया कि वह कश्मीर को भारत में विलय कर पाकिस्तानी सेना को कश्मीर की पवित्र भूमि से खदेड़ कर बाहर कर दे। भारत ने ये दोनों प्रस्ताव मान लिए – कश्मीर का भारत में विलय भी कर दिया गया और पाकिस्तानी आक्रमण को विफल करने तथा उन्हें खदेड़ कर बाहर करने के लिए रातों-रात वयुयानों से अपनी सेना भी भेजी। भारत की सेना के सामने पाकिस्तान के सैनिक जो कबाइलियों के वेश में आये थे और उनका साथ देनेवाले भाड़े टट्टू कबाइली टिक न सके, उन्हें युद्धभूमि छोड़कर सरदार पटेल की बात मानकर अपनी सेना को आगे बढने का आदेश दिया होता और कश्मीर के जिस भू-भाग पर पाकिस्तान ने अधिकार कर लिया था उससे भी उन्हें खदेड़ कर बाहर कर दया होता तो उसी उसी समय सारा मसला हल हो जाता, कश्मीर की पैदा ही न होती। परन्तु पं. नेहरू ने सरदार पटेल की बात न मानी। इसे इनका भोलापन भी कहा जा सकता है, अदूरदर्शिता भी कही जा सकता है, उनकी शान्तिप्रियता और संयुक्त राष्ट्र संघ में जाकर फरियाद करने का निर्णय लिया। संयुक्त राष्ट्र संघ के हस्तक्षेप से युद्ध विराम तो हो गया पर पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर की भूमि पर उसी का कब्जा बना रहा।

संयुक्त राष्ट्र संघ में अन्य समस्याओं की तरह कश्मीर की समस्या भी लटकी रही और आज पचास-पचपन वर्ष के बाद भी लटकी हुई है। बीच में इस समस्या का समाधान के लिए संयक्त राष्ट्र संघ ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसके दो भाग हैं – पाकिस्तान जबर्दस्ती अधिकार की गई भूमि (पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर) पर से अपनी सेनाएँ हटा ले तथा उसके बाद वहाँ जनमत संग्रह हो और वहाँ की जनता निर्णय करे कि वे किस के साथ रहना चाहते हैं अर्थात कश्मीर भारत का अंग बने या पाकिस्तान में उसका विलय हो। पाकिस्तान ने प्रस्ताव का पहला भाग मान कर अपनी सेनाएँ तो अधिकृत भूमि से हटाई नहीं, जनमत संग्रह का आग्रह करता रहा। उधर भारत ने आग्रह किया कि अधिकृत भूमि पर से पाक सेनाएँ हटने के बाद ही जनमत संग्रह हो। संयुक्त राष्ट्र संघ में दो गुट या दो शिविर थे – एंग्लो अमेरिकी तथा सोवियत संघ। पहला पाकिस्तान का पक्ष लेता रहा और दूसरा भारत का। परिणाम यह हुआ कि समस्या ज्यों की त्यों बनी रही।

भारत जनतांत्रिक देश है, अतः उसने अपने अन्य प्रदेशों की तरह कश्मीर में भी नियमित रूप से चुनाव कराये और वहाँ जनता द्वारा चुनी गयी सरकारें ही शासन करती रही हैं। पहले नेशनल कान्फ्रेंस शासन करती रही और हाल ही में मुफ़्ती मोहम्मद सईद और कांग्रेस की गठ-बन्धन सरकार ने सत्ता संभाली है। भारत ने इन पचास-पचपन वर्षों में कश्मीर की आर्थिक सहायता कर उसके विकास में बह योगदान दिया है। उधर पाकिस्तान की भूमि पर प्रशिक्षण पाने वाले, उसकी आर्थिक तथा सैनिक सहायता पाने वाले आतंकवादी पाकिस्तानी सैनिक, पाकिस्तानी नागरिक और भाड़े के टट्टू अफगान कश्मीर में हिंसा, रक्तपात, लूटपाट करते रहे यहाँ के नागरिकों का जीना दुर्भल करते रहे, यहाँ की स्त्रियों के साथ बलात्कार जैसे जघन्य अपराध करते रहे हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि कश्मीर जो पहले एक पर्यटन-स्थल था, जहां लाखों की संख्या में विदेशी और देशी पर्यटक आते थे और कश्मीर के रहनेवालों की आजीविका के साधन थे, वहाँ अब आतंक, रक्तपात, अशान्ति और प्राणों के भय से कश्मीर के निवासियों की आर्थिक दशा दयनीय हो गई है। वे इस वातावरण से ऊब चुके हैं, शान्ति चाहते हैं और उन्होंने देख लिया है कि पाकिस्तान में तानाशाही सैनिक शासन है, नागरिकों पर जुल्म होते हैं, उनके सभी अधिकार चीन लिए गए हैं। अतः कश्मीर के अल्पसंख्यक हिन्दु तो भारत के साथ हैं ही बहुसंख्यक मुसलमान भी पाकिस्तान के साथ नहीं रहना चाहते। पाक-अधिकृत कश्मीर में वहाँ के कश्मीरियों के साथ पाकिस्तान के व्यवहार ने भी उनकी आँखे खोल दी हैं।

अपनी नीतियों की असफलता तथा कश्मीर के निवासियों का भारत के प्रति झुकाव देखकर पाकिस्तान बौखला गया।उसने भारत की सीमाओं का कई बार उल्लंघन कर हमारे देश पर आक्रमण किया, परन्तु हर बार उसे पराजय का मुँह देखना पड़ा है। अतः अब वह दुहरी नीति अपना रहा है-एक और विदेशी भाड़े के टट्टूओं और पाकिस्तान के कट्टरपंथी मुसलमानों को चोरी-छुपे सीमा-रेखा उल्लंघन कर, घुस-पैठ कराकर कश्मीर में हत्या करा रहा है, भारत के सैनिकों की ही नहीं, निर्दोष नागरिकों-बूढों, बच्चों, स्त्रियों तक की तथा दूसरी और विश्व-मंच पर भारत को धमकियाँ तथा अन्य देशों को चेतावनी दे रहा है कि यदि इस समस्या को नहीं सुलझाया गया, अर्थात् थाली में सजाकर भारत ने कश्मीर को उसे नहीं सौंपा तो वह भारत पर एटम बम से प्रहार करेगा, तीसरा युद्ध छिड़ सकता है। भारत बार-बार कहता रहा है कि इस समस्या को बातचीत के माध्यम से सुलझाया जाये, 1971 में हुए शिमला समझौते के आधार पर समस्या का हल ढूंढा जाये, पर अड़ियल, दुराग्रही पाकिस्तान विशेषतः वहाँ का सैनिक शासन इसके लिए तैयार नहीं है और इसका एक कारण यह भी है कि अपने निहित स्वार्थों के कारण, पाकिस्तान को अपना मुहरा बनाकर रखनेवाला अमेरिका जो अन्यत्र आतंकवाद के विरोध की बात करता है, स्वयं को हर तरह के आतंकवाद को जड़ से नष्ट करने की बात कहता है, वह पाकिस्तान के साथ नरम रवैया अपनाये हुए है, उसे आर्थिक सहायता ही नहीं सैनिक सहायता भी डे रहा है, उस पर दबाव डालने की बजाय उसके हौसले बढ़ा रहा है।

हमारे विचार से इस समस्या का समाधान एक ही है – पाकिस्तान में आतंकवादियों के लिए बने प्रशिक्षण-शिविरों पर आक्रमण कर उन्हें ध्वस्त कर देना और आतंकवाद को जड़-मूल से उखाड़ फेंकना। परन्तु अंतर्राष्ट्रीय दबाव के कारण वह ऐसा नहीं कर पा रहा है। हमारे प्रधानमंत्री ने तीन-चार बार दोस्ती का हाथ बढ़ाया है पर हर बार निराशा ही हाथ लगी है। भविष्य में भी पाकिस्तान के व्यवहार में किसी परिवर्तन की आशा नहीं है। भविष्य अनिश्चित ही है।

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