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मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना: विद्यार्थियों के लिए हिंदी निबंध

मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना: विद्यार्थियों के लिए हिंदी निबंध

मजहब उर्दू का शब्द है जिसका हिंदी पर्याय है धर्म। हमारे यहाँ धर्म की परिभाषा की गई है जो धारण करता है वह धर्म है। धारण करने से तात्पर्य है सहारा देना, रक्षा करना। धर्मशास्त्रों, नितिग्रन्थों में जो जीवन जीने का मार्ग, नीति-नियम बनाये गये हैं, आत्मा को, मन को शुद्ध, सात्विक और पवित्र बनाने के नियम बनाये गये हैं, वे सब धर्म के अन्तर्गत आते हैं। सभी धर्म और सभी धर्मों के आचार्य सत्य, परस्पर-मैत्री, भाईचारे, परोपकार, दान-दया की शिक्षा देते हैं। इसलिए कहा गया है कि मजहब आपस में बैर करना नहीं सिखाता।

प्रश्न उठता है कि जब धर्म बैर करना नहीं सिखाता तो फिर धर्म के नाम पर आये दिन दंगे क्यों होते हैं, इन दंगों में हजारों लोगों की हत्या क्यों की जाती है, लाखों-करोड़ों की सम्पत्ति क्यों फूंक कर राख बना दी जाती है। इसका सीधा उत्तर है धर्म की गलत अवधारणा और अपने विचारों, अपनी आस्था, अपने धार्मिक कर्मकाण्ड को ही सर्वश्रेष्ठ मानना। कुछ लोग धार्मिक कर्म-मूर्ति-पूजा, मस्जिद में पश्चिम की ओर मुख कर नमाज पढना, रोजे रखना, बकरीद के दिन बकरे या गाय की कुर्बानी करने को ही मजहब या धर्म मानते हैं। अपनी कट्टरता, धर्मान्धता, कठमुल्लेपन के कारण दूसरे के घोर शत्रु बन जाते हैं।

धर्म के नाम पर खून-खराबा, आगजनी, मार-काट, लूट-पाट सभी देशों में होती रही है। यूरोप में कैथोलिकों – प्रोस्टैंटों के बीच, मध्य एशिया में सुन्नी और शिया सम्प्रदायों के बीच होनेवाले सांप्रदायिक दंगों में हजारों लोग मरे, लाखों-करोड़ो की सम्पत्ति नष्ट हुई। वर्षों तक अशान्ति, भय और आतंक के वातावरण में जनता यातना झेलती रही। आज भी इसी कट्टरता के कारण सलमान रुश्दी के उपन्यास को लेकर उसे मौत का फरमान सुनाया जाता है, मुलमान परित्यक्ता महिला के पक्ष में सर्वोच्च न्यायलय का निर्णय सनने के बाद मुसलमान भड़क उठते हैं। पर आज भारत के बाहर धर्म या सम्प्रदाय के नाम पर झगड़े कम होते हैं जबकि भारत में प्रतिवर्ष कहीं न कहीं इन जघन्य और अमानवीय कार्यों की गूंज सुनाई देती है। कभी गुजरात में झगड़े होते हैं तो कभी उत्तरप्रदेश में। इसका मूल कारण यह है कि इन दंगों के लिए उत्तरदायी व्यक्ति धर्म का सच्चा अर्थ नहीं समझते। वे बह्याचार, बाह्याडम्बर, धार्मिक कर्मकाण्ड को ही धर्म मानते हैं जबकि धर्म का सम्बन्ध मन, आत्मा तथा आन्तरिक भावों से है। जो इनको शुद्ध बनाये, पवित्र बनाये, सात्विक बनाये वही सच्चा धर्म है। ये लोग अपने मत को दूसरों के मत से अच्छा तो समझते ही हैं, अपना मत दूसरों पर लाद देना चाहते हैं।

आज धार्मिक उन्माद और उससे उत्पन्न होनेवाली विभीषिकाओं का मूल कारण धर्म नहीं है, राजनीति है। ब्रिटिश शासकों के भारत में आगमन से पूर्व हिन्दू-मुसलमानों के बीच जो संघर्ष हुआ वह आक्रान्ता एवं भारत के मूल निवासियों हिन्दुओं के बीच हुआ बल दिया जाता रहा धर्म-परिवर्तन पर, हिन्दुओं के पूजा-स्थलों को नष्ट कर उनके स्थान पर मस्जिदें बनाने पर। बाबर ने अयोध्या में राम-मन्दिर को नष्ट कर बाबरी मस्जिद बनायी जो आज भी झगड़े का कारण बनी हुई है। परन्तु ब्रिटिश शासकों ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए, भारत पर अपना प्रभुत्व बनाये रखने, अपने सम्राज्य को सुदृढ़ बनाने के लिए कूटनीति का सहारा लिया। ‘Divide एंड Rule‘ अर्थात् बाँटों और शासन करो की धूर्ततापूर्ण नीति अपनायी, दोनों में फुट डाली। परिणाम यह हुआ कि वे 1947 तक शासन करते रहे और जब अन्तर्राष्ट्रीय कारणों से उन्हें भारत छोड़ना भी पड़ा तो उन्होंने मुसलमानों को उकसाकर, भड़काकर देश को दो टुकड़ों-भारत तथा पाकिस्तान में बाँट दिया और सदा-सर्वदा के लिए इस क्षेत्र को अशन्तिमय बनाने के अपने इरादे में सफल हुए।

आज भी भारत में यदा-कदा जो दंगे होते रहते हैं उनके पीछे तो पाकिस्तान की कूटनीति है। वह नहीं चाहता कि भारत में स्थिरता हो, उसका भौतिक विकास हो, वह अपने प्राकृतिक संसाधनों, मानव शक्ति और प्रतिभा के बल से विश्व के अग्रणी देशों की पंक्ति में बैठे। अतः एक और वह सीमा-पार से आतंकवादियों की घुस-पैठ करता रहता है, भारत में रहने मुसलमानों को धर्म के नाम पर फुसलाकर झगड़े कराता रहता है। गुजरात में हुए दंगों का एक कारण पाकिस्तान से आये मुसलमान भी थे जिन्होंने न केवल अक्षयधाम मंदिर पर आक्रमण कर वहाँ उपासना करनेवालों की हत्या की, रेलगाड़ी से अयोध्या जा रहे हिन्दुओं की हत्या की अपितु साम्प्रदायिक तनाव और झगड़े भी पैदा किए।

दूसरा कारण है स्वयं भारत के राजनेता। प्रजातंत्र में चुनाव होते हैं और जो चुनाव में जीतता है, वही सत्ता की बागडोर संभालता है, सत्ता की कुर्सी पर बैठता है। अतः सबकी दृष्टि वोट-बैंक बनाने पर केन्द्रित होती है। वोट पाने के लालच में राजनेता मतदाताओं को एक दूसरे के सम्प्रदाय के विरुद्ध भड़काते हैं। अतः इन दंगों के पीछे राजनेताओं के निहित स्वार्थ होते हैं। जब तक जनता स्वयं इस षड्यंत्र को नहीं समझ लेती, कितने ही प्रवचन, कितनी ही सूक्तियाँ, कितने ही धर्मशास्त्रों के वचन स्थिति को बदल नहीं सकते। गाँधी जी ‘ईश्वर अल्लाह तेरे नाम सबको सन्मती दे भगवान’ की रट लगाते रहे, कबीर ने बहुत पहले अपनी पीड़ा प्रकट करते हुए कहा: ‘अरे इन दोउन राह न पायी’। संतो ने बार-बार कहा राम-रहीम, कृष्ण-करीम एक ही हैं, पर सब बहरे कानों पर पड़कर बेकार हो गये।

जब तक राष्ट्रिय चरित्र निर्माण नहीं होगा, जब तक जनता यह नहीं समझेगी की हमारा देश, हमारे देश की धरती सर्वोपरी है, उसकी रक्षा, उसकी शांति में ही सबका हित है, तब तक यह दुखद स्थिति बनी रहेगी। सब मानते हैं कि युद्ध से, झगड़ों से किसी समस्या का कोई हल न निकला है और न निकलेगा। पारस्परिक सौहार्द, भाईचारा, समझौते की मनोवृत्ति ही समस्याओं का हल है।

हमें समझना चाहिए कि सब धर्मों का एक ही लक्ष्य है – ईश्वर की प्राप्ति या फिर सुख-चैन से रहना, निरन्तर प्रगति करना। ‘जिओ और जीने दो‘ का मंत्र अपनाकर ही हम सब सुखी रह सकते हैं। इसी मंत्र को पहचानकर उर्दू के प्रसिद्ध शायर इकबाल ने लिखा था:

मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना
हिन्द हैं हम, हमवतन हैं, हिन्दोस्तां हमारा।

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