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Democracy

भारत में प्रजातंत्र का भविष्य पर हिंदी निबंध

15 अगस्त 1947 तक भारत परतंत्र था, उस पर साम्राज्यवादी ब्रिटिश शासकों का आधिपत्य था। गांधी जी के नेतृत्व में हमने आजादी के लिए विदेशी शासकों के साथ संघर्ष किया और अन्ततः उन्हें देश छोड़ने के लिए विवश किया। देश की सार्वभौम स्वायत्तता की घोषणा करनेवाला संविधान बना और 26 जनवरी 1950 को गणतंत्र की स्थापना कर प्रजातांत्रिक सरकार बनी। प्रजातंत्रीय शासन-प्रणाली का अर्थ है जनता द्वारा, जनता के हितों की रक्षा करने वाली शासन-व्यवस्था। 1950 के बाद प्रति पाँच वर्ष चुनाव हुए, व्यस्क नागरिकों ने मतदान में भाग लेकर अपनी पसन्द के व्यक्ति चुनकर उन्हें संसद में भेजा, उन्होंने बहुमत के आधार पर सरकार बनाई और इस प्रकार प्रजातंत्र का यान अपने लक्ष्य की और आगे बढ़ा।

भारत में प्रजातंत्र का भविष्य पर हिंदी निबंध विद्यार्थियों और बच्चों के लिए

भविष्य की संभावनाओं का आकलन हम अतीत के अनुभवों तथा वर्तमान स्थिति के आधार पर करते हैं। अतः भारत में प्रजातंत्र का भविष्य क्या हो सकता है इसका आकलन हम पिछले पचास वर्षों की उपलब्धियों, असफलताओं का आकलन के आधार पर कर सकते है। आजादी के समय हमने सुनहरे सपने देखे थे; सोचा था कि जनता के हितों के लिए बनी हमारी सरकार देश को उन्नत और देशवासियों को सुखी-सम्पन्न बनाने के लिए कार्य करेगी, हमारा राष्ट्र संसार के उन्नत, शक्तिशाली देशों में परिगणित होगा क्योंकि हमारे देश में जन-शक्ति भी है, प्राकृतिक संसाधनों का अपार भंडार है, प्रतिभा है, आगे बढने का उत्साह है। हमारी धारणा थी कि देश की नैया के कर्णधार वे ही हैं जिन्होंने स्वतंत्रता-संग्राम में त्याग, बलिदान, देशप्रेम का परिचय दिया था। अतः हमारा स्वप्न पूरा होगा: देश समता, स्वतंत्रता, बन्धुत्व के मार्ग पर चलेगा, शासक वर्ग सामान्य जन की बुनियाई आवश्यकताओं: रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि को पुरा करने के लिए निष्ठापूर्वक, ईमानदारी तथा परिश्रम से कार्य करेंगे। गरीब-अमीर का भेद, ऊँची-नीच का भाव समाप्त हो जाएगा और सबको न्याय मिलेगा। वस्तुतः प्रजातंत्रीय शासन प्रणाली से यही अपेक्षा की जाती है। पर क्या पिछले पचास वर्षों में हमारा सपना पूरा हुआ, हमारी अपेक्षाएँ, आशाएँ पूरी हुईं? हमारे चुने हुए प्रतिनिधि प्रजा का हित चाहने और करनेवाले सिद्ध हुए?

प्रजातंत्र की रीढ़ है चुनाव क्योंकि चुनाव द्वारा ही हम सरकार का गठन करते हैं और हमारे चुने हुए प्रतिनिधियों के आचरण तथा कार्यकलाप पर ही प्रजातंत्र की सफलता-असफलता निर्भर करती है। चुनाव निष्पक्ष होने चाहिएँ, मतदाताओं को अपना मत निर्भय होकर देने का अवसर मिलना चाहिए और मतदाताओं में इतना विवेक होंना चाहिए कि वे सुयोग्य व्यक्तियों को ही चुनें। भारत का पिछले पचास वर्ष का इतिहास बताता है कि इस दृष्टि से हम नितांत असफल रहे हैं। मतदाता विवेकशून्य हैं, धन के लोभ-लालच अथवा लाठी के आतंक के कारण अथवा जाती-धर्म-समुदाय-भाषा आदि के जाल में फंस कर सुयोग्य, सच्चरित्र, व्यक्ति का तिरस्कार कर उसके स्थान पर ऐसे व्यक्ति को चुनते हैं जिसके पास धन की शक्ति है, लाठी का बल है, प्रभुता है अथवा है जो धर्म, जाती, सम्प्रदाय का सहारा लेकर जनता को बरगला सकता है, भड़का सकता है। परिणाम यह हुआ है कि शासन की बागडोर, देश के निर्माण का कार्य ऐसे हाथों में सौंप दिया जाता है जो भ्रष्ट हैं स्वार्थी हैं, गुंडागर्दी करने में माहिर हैं। संसद में आये दिन नारेबाजी, हुल्लड़, एक दूसरे पर कीचड़ उछालने, संसद का कार्य ठप्प करने के दृश्य दिखाई देते हैं। उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि संसद विचारशील, देश का हित चाहने और कहनेवाले सुयोग्य, सच्चरित्र सांसदों के विचार-विनिमय का स्थान न होकर गुण्डों, पहलवानों का अखाड़ा बन गया है देश के हितों और देशवासियों की उपेक्षा-अवहेलना करनेवाली शासन-प्रणाली कभी सफल नहीं हो सकती।

आज स्थिति यह है कि समता, स्वतंत्रता, बन्धुत्व की भावना लुप्त हो गयी है, मनुष्य मनुष्य के बीच दीवारें ऊँची और मजबूत होती जा रहीं हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नारेबाजी, एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में परिणत हो गई हैं। स्वतंत्रता स्वच्छन्दता बन गई है, परिणाम है: अराजकता, उच्छृंखलता, अनुशासनहीनता, हड़तालें, बन्द, चक्का जाम आदि जिनके कारण हमारी अर्थव्यवस्था चरमराने लगती है। सामान्य जनता को सुशिक्षित एवं विवेकपूर्ण बनाने में हम असमर्थ रहे हैं, भ्रष्टाचार, असमानता, लुट-खसोट, अनुशासनहीनता तथा उनके दुष्परिणामों को देखकर लगता है कि भारत में प्रजातंत्र का भविष्य उज्ज्वल नहीं अंधकारपूर्ण है। यदि जनता संकीर्ण विचारों से ऊपर उठकर विवेक से अपने प्रतिनिधियों को नहीं चुनेगी, भ्रष्ट शासन को समाप्त करने का साहस और जीवट नहीं दिखाएगी तो हो सकता है कि यहाँ एक दिन कोई तानाशाह सत्तारूढ़ हो जाये।

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