भारत की जलवायु, भूगोल, प्राकृतिक परिवेश, यहाँ की उर्वरा भूमि, स्वच्छ जल के सरोवर और नदियाँ, वन तथा पर्वतों ने यहाँ के रहनेवालों को आत्म-निरक्षण, आत्म-चिंतन, मनन, ध्यान, योग-साधना के लिए अवसर प्रदान किया। धन-धान्य, खद्यान्न से सम्पन्न यहाँ के निवासी आत्म-निर्भर थे। अध्यात्म-चिंतन ने उन्हें आत्म-संतोष, अपरिग्रह का पाठ पढ़ाया तो आत्म-निर्भरता ने उन्हें किसी दूसरे पर आश्रित होने के लिए, किसी दूसरे देश की धन-सम्पदा पर डाका डालने के लिए विवश नहीं किया। प्रारम्भ से ही यहाँ के ऋषियों-मुनियों ने चिन्तन-मनन किया, अध्यात्मिक प्रश्नों पर सोचा और विचार-विमर्श किया परिणाम था – वेद, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथ तथा गीता जैसे अमूल्य ग्रंथ। इन ऋषियों-मुनियों ने तपोवनों में आश्रम खोले और अध्यात्म विद्या का प्रचार किया। इस प्रकार भारत आरम्भ से ही अध्यात्मवादी और शान्ति का उपासक देश रहा है। शान्ति प्रिय, सहिष्णु और क्षमाशील होते हुए भी उसने कभी अकर्मण्यता, पलायनवादिता और कायरता का परिचय नहीं दिया। गीता के कृष्ण ने कर्म का संदेश दिया, ‘दैन्यं न पलायनं’ का मंत्र पढ़ा, पाण्डवों ने कौरवों के अन्याय और अनीति के विरुद्ध संघर्ष किया और विजय प्राप्त की। उनसे पूर्व त्रेता युग में राम ने रावण से युद्ध किया, उसे पराजित किया, पर उसका राज्य उसके छोटे भाई विभीषण को सौंप कर वापिस अयोध्या लौट आये। जब सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया तब भी पोरस और चन्द्रगुप्त ने लोहा लिया, यूनानी सेना को खदेड़ दिया और चाणक्य के परामर्श पर चन्द्रगुप्त ने यूनान के सेनापति सेल्यूकस की कन्या से विवाह कर दोनों देशों के मैत्री सम्बन्धों को दृढ बनाने की चेष्टा की।
आजादी से पूर्व गांधी जी के नेतृत्व में स्वतंत्रता-संग्राम भी ब्रिटेन की सम्राज्यवादी-उपनिवेशवादी नीति तथा उनके अत्याचार, शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध अहिंसा की लड़ाई थी। सारांश यह है कि भारत का इतिहास इस बात का साक्षी है कि हम दूसरों की भूमि, धन-सम्पदा पर गिद्ध-दृष्टि नहीं रखते, साम्राज्य-विस्तार में हमारी आस्था नहीं है, हम ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त में विश्वास करते हैं, पर साथ ही आत्म-रक्षा के लिए सजग और सावधान रहते हैं। हमारा शान्ति पाठ “ओउम् द्यौ शान्तिः, अंतरिक्षद्वम् शान्तिः, पृथ्वी शान्तिः, आपः शान्तिः, ओषधयः शान्तिः, वनस्पतयः शान्तिः” शान्ति को आवश्यक मानता है और जड़-चेतन सभी को शान्त रखने का आह्वान करता है। हमारा एक अन्य मंत्र ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयम्, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दु:ख भाग भवेत्’ हमारी उदार विचारधारा और विश्व-मंगल की कामना का परिचायक है।
1947 में स्वतंत्रता के बाद भारत के प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने देखा और अनुभव किया कि दो महाविनाशकारी युद्धों के बाद, लीग ऑफ नेशन्स तथा संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना के बाद भी विश्व दो शिविरों – अमेरिका तथा रूस के समर्थकों में विभक्त है, शीत युद्ध चल रहा है और कभी भी किसी की भूल, अविवेक, शक्तिमद के कारण तृतीय महायुद्ध छिड़ सकता है जो मानव जाती का, सम्पूर्ण पृथ्वी-मंडल का विनाश कर देगा। अतः उन्होंने मिस्र के राष्ट्रपति नासिर तथा युगोस्लाविया के मार्शल टीटो के साथ मिलकर तटस्थ, निर्गुण आन्दोलन की स्थापना की जिसका एक ही उद्देश्य था पक्षपात विहीन होकर सबको न्याय दिलाना, किसी की दादागिरी न चलने देना और विश्व में शान्ति बनाये रखना। भारत की तटस्थता की नीति का उद्देश्य केवल विश्व में शान्ति बनाये रखना है।
भारत ने शान्ति बनाये एखने का भरसक उपाय किया है और वह इस बात पर बल देता रहा है कि मतभेदों को शान्तिपूर्ण वार्तालाप द्वारा बातचीत द्वारा निपटाया जाये, अस्त्र-शस्त्र के प्रयोग से, युद्ध से कोई समस्या हल नहीं हो सकती। उसने अपने इस कथन को अपनी विदेश नीति भी बनाया है। पाकिस्तान के कश्मीर को लेकर तिनं बार भारत पा आक्रमण किया और उसे सजग, सशक्त भारतीय सेना के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा। आज भी वह आतंकवाद को प्रश्रय और सहायता देकर अप्रत्यक्ष युद्ध कर रहा है। फिर भी हमारे प्रधानमंत्री दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं, दोनों देशों के बीच मैत्री, सौहार्द, सहयोग का प्रस्ताव रखते हैं। यह सब विश्व शान्ति के लिए ही तो किया जा रहा है। श्रीलंका में एल.टी.टी.ई. ने राजीव गांधी के शान्ति-प्रयासों को अपना विरोध समझ कर उनकी हत्या करा दी और भारत ने शान्ति की वेदी पर एक उत्साही, युवा, देशभक्त, विश्व-शांति के समर्थक नेता का बलिदान कर दिया। उसकी शान्ति-नीति और शान्ति-स्थापना के प्रयासों पर विश्व के राष्ट्रों और संयुक्त राष्ट्र संघ को विश्वास भी है। इसी विश्वास के कारण जब कभी दो देशों के बीच संघर्ष हुआ, भारत को शान्ति स्थापित करने के लिए पुकारा गया। युद्धग्रस्त कोरिया में युद्ध-बन्दियों के आदान-प्रदान के लिए हमने संयुक्त राष्ट्र संघ के आदेश पर अपने सैनिक भेजे और उन्होंने अपना कर्त्तव्य पूरी ईमानदारी के साथ पूरा किया। उसके बाद भी हमारी सैन्य टुकड़ियाँ शान्ति कार्यों के लिए देशों में गयी हैं। सोमालिया, यूगाण्डा में भी इन टुकड़ियों ने बड़ी कुशलता से अपना कर्त्तव्य सम्पादित किया है। ईराक में एकतरफा युद्ध छेड़कर, उसे ध्वस्त कर अमरीका आज भी भारत से आग्रह कर रहा है कि वह अपनी सेना ईराक भेज कर शान्ति-स्थापना में सहायता दे। भारत ने सशक्त अमरीका का यह प्रस्ताव ठुकराकर अपने साहस और तटस्थता का परिचय दिया है। वह चाहता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की शक्ति कम न हो, उसका वर्चस्व बना रहे, ताकि किसी एक देश की मनमानी, दादागिरी न चल सके। इस प्रकार भारत एक ओर अहिंसा, प्रेम, विश्वबंधुत्व, सहयोग की बात ख कर विश्व में शान्ति का वातावरण बनाये रखना चाहता है तथा दूसरी ओर संयुक्त राष्ट्र संघ के सहयोग से अपनी शान्ति-सेना भेजकर संघर्षरत देशों में समझौता कराने तथा वहाँ शान्ति का वातावरण पुनः स्थापित करने के लिए भी तैयार है। निश्चय ही भारत की यह नीति विश्व-शान्ति की स्तापना में सहायक होगी।
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