इन आत्महत्याओं के जो कारण बताए जाते हैं, असलियत में क्या वे ही होते हैं या बात दूसरी भी होती है? दरअसल, जब से शिक्षा का अर्थ ‘शिक्षित करने’ से हट कर ‘समृद्ध करना’ बन गया है तब से हमारी महत्त्वाकांक्षाएं बेहिसाब बढ़ी हैं। अब ‘छोटा परिवार सुखी परिवार’ का नारा ‘छोटा परिवार समृद्ध परिवार’ में बदल गया है। तभी तो अकसर शिक्षण संस्थाओं से विद्यार्थी नहीं निकल रहे, बल्कि अब जैसे भी हो डाक्टर, इंजीनियर, एमबीए वगैरह प्रोफैशनल बनाए जा रहे हैं, जिन का एक ही ध्येय है, बेहिसाब पैसा बनाना। भारत पर बाजार का कब्जा होने के बाद से तो स्कूल खासतौर से प्राइवेट स्कूल बच्चों को ‘पैसा कमाने की मशीन’ बनाने वाली फैक्टरियां बन गए हैं। वे अपने तामझाम से बच्चों का ऐडमिशन कराने आए मातापिता को रिझाते हैं, उन्हें बड़ेबड़े सपने दिखाते हैं और यह यकीन तक दिला देते हैं कि अगर वे उन के यहां से अपने बच्चे को शिक्षा दिलाएंगे तो वह बच्चा अंकों के खेल में तो बाजी मारेगा ही, सफलता की रेस में भी सब से आगे निकल जाएगा।
बस, यहीं से शुरू हो जाता है बच्चे पर शारीरिक और मानसिक बोझ का पड़ना। स्कूल का बस्ता तो हर कक्षा के बाद अपना वजन बढ़ाता ही है, मातापिता की महत्त्वाकांक्षाएं भी दिनोंदिन बच्चे के कोमल मस्तिष्क पर सवार होने लगती हैं। मातापिता जो अपने जीवन में नहीं कर पाए होते हैं वे अपने बच्चों के माध्यम से पूरा करना चाहते हैं, चाहे वैसा करने की दिलचस्पी बच्चे में हो या नहीं। एक अध्ययन से सामने आया है कि 8 से 10 साल के बच्चों में पढ़ाई को ले कर इतना दबाव बना दिया जाता है कि खेलनेकूदने के दिनों में उन में से 30 फीसदी बच्चे अवसाद से घिरे नजर आते हैं। इस हद तक कि वे कभीकभार आत्मग्लानि के शिकार बन जाते हैं। उन्हें लगता है कि अगर वे दूसरों की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे तो अपनी नजरों में गिर जाएंगे। इस कशमकश में वे कभीकभार अपनी मासूम जिंदगी तक दांव पर लगा बैठते हैं। बड़े दुख की बात है कि 2012 में 14 साल तक की उम्र के 2,738 बच्चों ने अपनी जिंदगी खत्म कर ली थी। इन में से कुछ के पारिवारिक कारण थे, तो कइयों ने परीक्षाफल में मनमाफिक अंक न ला पाने के चलते ऐसा खतरनाक कदम उठा लिया था।
तेजी से टूटते संयुक्त परिवार, आर्थिक और सामाजिक प्रतिष्ठा को सर्वोपरि मानना, खुद के बारे में ‘सुपरकिड’ होने का भरम पाल लेना आजकल के बच्चों को उन के बचपन से लगातार दूर कर रहा है।
कामयाबी पाने की अंधी दौड़
शहरों में ही नहीं, बल्कि अब तो ग्रामीण क्षेत्रों में भी छोटे परिवारों का चलन बढ़ा है, लेकिन ये छोटे परिवार संसाधन असीमित चाहते हैं। इस के लिए मातापिता नौकरी करने लगे हैं। इतना ही नहीं, काम में खुद को बेहतर साबित करने के लिए वे अपनी काम करने की जगह पर ही ज्यादा से ज्यादा समय बिताना पसंद करते हैं। ऐसे लोगों के पास अपने बच्चे के लिए पर्याप्त समय नहीं होता है। नतीजतन, बच्चे घर में ‘आया’ की देखरेख में पलते हैं या ‘प्ले स्कूल’ में अपने बचपन का अनमोल समय गंवा देते हैं। ऐसे बच्चे जब अपने मातापिता से मदद मांगते हैं तो वे या तो व्यस्त होने की दुहाई देते हैं या पीछा छुड़ाने के लिए बच्चे की ऐसी ख्वाहिश भी पूरी कर देते हैं जो जरूरी नहीं होती है। इस के एवज में मातापिता अपने बच्चे से पढ़ाई में शानदार रिजल्ट लाने की डिमांड रखते हैं। कभीकभी तो उसे डरा भी देते हैं कि अगर सब से आगे रहना है तो सब से बेहतर बनना होगा।
घर में घुसे बाजार और इलैक्ट्रौनिक मीडिया ने छोटे परिवारों को ऐसे बड़े घरों के सपने दिखाए हैं जिन में सुखसुविधाओं के सभी संसाधन भरे हों। फिर अब तो घर से ले कर मोबाइल फोन तक लोन पर मिलने लगे हैं। ईएमआई ने हर घर में सेंध लगा दी है। कर्ज लेना अब गरीब होने की निशानी नहीं रह गया है, बल्कि स्टेटस सिंबल है कि फलां दंपती अपने 3+1 बीएचके फ्लैट के लिए 50 हजार रुपए की ईएमआई भर रहा है।
कामयाबी पाने की इस अंधी दौड़ में अब बड़े ही नहीं, बल्कि बच्चे भी शामिल होने लगे हैं। शायद इसीलिए अब उन की पढ़ाई लिखाई का मतलब ‘रुपया कमाने की मशीन’ बनना रह गया है। अगर बच्चा मेधावी है तो ठीक है, लेकिन अगर वह उतना होशियार नहीं है या अपनी पसंद का कैरियर बनाना चाहता है और उस के मातापिता कतई नहीं चाहते हैं, तो ऐसे बच्चे में पढ़ाई के दबाव से तनाव या अवसाद के लक्षण दिखने लगते हैं। किशोरावस्था में एक तरफ तो वे शारीरिक बदलावों से जूझ रहे होते हैं तो दूसरी ओर कैरियर बनाने के प्रैशर से घुट रहे होते हैं, जिस से वे स्वार्थी और आत्मकेंद्रित हो जाते हैं। और जब उन का यह दबाव हद पार कर जाता है तो वे अपनी जान देने तक का मन बना लेते हैं और दे भी देते हैं।