शिक्षा और व्यवसाय: हिंदी निबंध
व्यवसाय का अर्थ है जीवित रहने के लिए, जीविकोपार्जन के लिए कोई काम-धन्धा करना जिससे प्राप्त आय से व्यक्ति अपना, अपने परिवार-जनों का लालन-पालन कर सके, जीवन की अन्य आवश्यकता पूरी कर सुख-चैन से जीवन बिता सके। वह व्यवसाय करता है केवल अपने हित के लिए संसार के हित से उसे कोई लेना-देना नहीं है। व्यवसायी व्यक्ति केवल उतना पढ़ता-लिखता है जिससे वह हिसाब-किताब कर सके, बही-खाता लिख सके, आवश्यकता पड़ने पर अन्य व्यापारी को पत्र लिख सके। केवल साक्षर व्यक्ति बड़ा व्यापारी-व्यवसायी बन सकता है। बिड़ला के पूर्वज घर से लुटिया-डोरी लेकर निकले थे, और आज वे करोड़पति बने हुए हैं। उनमें व्यवसायिक बुद्धि जन्मजात होती है, उसी के बल पर वह लाखों-करोड़ों का वारा-न्यारा करते देखे गये हैं। उन्होंने न किसी गुरु से शिक्षा प्राप्त की और न किसी ग्रंथ का अध्ययन किया। इसी मानसिकता के कारण सम्पन्न-समृद्ध व्यवसायी अपनी सन्तान को विद्यालयों में नहीं भेजते, कहते हैं इन्हें कौन-सी नौकरी करनी है जो पढाई-लिखाई में समय, शक्ति, धन नष्ट करें। यदि कभी आवश्यकता हुई तो किसी पढ़े-लिखे योग्य व्यक्ति को अपने कार्यालय में लिपिक, टंकक या मैनेजर के रूप में रख लेंगे। अपने देखा होगा कि व्यवसायी व्यक्ति पढ़े-लिखे, ऊँची डिग्री प्राप्त, सुशिक्षित व्यक्ति को अपना नौकर बनाकर उस पर शासन करता है जबकि महान विद्वान और शिक्षाविद् कहलानेवाला व्यक्ति आज तक किसी व्यवसायी को अपने अधीन नहीं रख सका। कहने का तात्पर्य यह कि शिक्षा और व्यवसाय का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है।
आज स्थिति बदल गयी है। आज शिक्षा पाने का मुख्य लक्ष्य जीविकोपार्जन हो गया है। विद्यार्थी विश्वविद्यालय की डिग्री इसलिए प्राप्त करता है ताकि उसके बल पर उसे रोजगार, नौकरी मिल सके। नौकरी भी एक प्रकार का व्यवसाय ही है। दूसरे, प्रत्याशी युवकों की अपार भीड़ और रिक्त पदों की सिमित संख्या देखकर यह अनुभव किया गया है कि व्यवसायोन्मुख (वोकेशनल) बनाया जाये। छात्रों को बिजली, टेलीफोन, संचार, पत्रकारिता आदि क्षेत्रों में काम करने के लिए प्रशिक्षण दिया जाये और अब ऐसे विद्यालय खुल भी गये हैं। विश्वविद्यालयों के अर्थशास्त्र तथा वाणिज्य विभागों के अन्तर्गत आफिस मैनेजमेंट, होटल मैनेजमेंट, एम. बी. ए. आदि के पाठ्यक्रम शुरू किये गये हैं और उच्च पद पर नियुक्त होकर जीविका कमाते हैं। स्वयं व्यवसाय करने लगते हैं या व्यवसाय-घरानों में उच्च पद पर नियुक्त होकर जीविका कमाते हैं। स्वयं व्यवसायी लोग भी अपने बेटों-बेटियों को इस प्रकार के पाठ्यक्रम पढ़ाने के लिए लालायित रहते हैं। कुछ तो व्यवसाय के नए-तौर-तरीके सीखने के लिए उन्हें विदेशों में भेजते हैं।
आज व्यावसायिकता एक प्रदेश, एक देश या एक महाद्वीप में सिमट कर नहीं रह गयी है। वह राष्ट्रीय और इससे भी बढकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की हो गई है। अतः यदि कोई व्यवसायी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सफल होना चाहता है तो उसे अनेक प्रतिद्वन्दियों से स्पर्धा करनी पड़ती है और स्पर्धा में वही जीत सकता है, आगे बढ़ सकता है जिसे अन्तर्राष्ट्रीय व्यावसायिक गतिविधियों की जानकारी हो, अन्तर्राष्ट्रीय जटिल नियमों-कानूनों का ज्ञान हो। अनपढ़ या अल्पशिक्षित व्यक्ति इन नियमों-कानूनों को न जानता है, न समझता है, अतः उसे प्रशिक्षित, योग्य, निपुण, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक गति-विधियों को जानने-समझनेवाले व्यक्तियों पर निर्भर होना पड़ता है। कभी-कभी जिन चतुर, शातिर, योग्य व्यक्तियों को वह नौकर रखता है, या सहायक बनाता है वे ही उसे धोखा देकर स्वयं उसका स्थान पा लेते हैं। अतः आज के व्यवसायी के लिए शिक्षा प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक हो गया है। अब व्यवसाय और शिक्षा का गहरा सम्बन्ध हो गया है।
आज व्यवसायी और व्यवसाय दोनों की सफलता और समृद्धि के लिए शिक्षा आवश्यक है। शिक्षा उनके लिए समय की माँग है जिसको अनदेखी नहीं कर सकते, अनेदखी करने का परिणाम होगा असफलता।
सारांश यह कि व्यवसाय पाने अर्थात् नौकरी, रोजगार, आजीविका पाने के लिए भी शिक्षा अनिवार्य है और व्यवसाय करने, उसका सफल संचालन के लिए भी शिक्षा आवश्यक है। समय परिवर्तनशील है, युग बदलता है, युग के साथ-साथ परिस्थितियाँ बदलती हैं। चतुर मनुष्य वही है जो समय की आवश्यकता को पहचान कर कार्य करे। ‘बहै जब जैसी बयार, पीठ तब तैसी दीजै’ आज व्यवसाय के तौर-तरीके बदल गये हैं, अब वह देशों की सीमाओं को पार कर अन्तर्राष्ट्रीय बन गया है। अतः शिक्षा का अर्थ और प्रयोजन भी बन गया है। आज शिक्षा व्यवसायोन्मुख हो गयी है।