Monday , November 4 2024
Delhi Metro

सबै दिन जात न एक समान: विद्यार्थियों के लिए हिंदी निबंध

इसे सूक्ति में दिन का वाच्यार्थ दिन है और ध्वन्यार्थ है काल। दिन भी बदलते रहते हैं। दिन के बाद रात और रात के बाद दिन आता है। दिन भी भिन्न-भिन्न ऋतुओं में अपने स्वरूप और कालावधि में बदलता रहता है; ग्रीष्म ऋतु में दिन पहाड़ जैसा लम्बा हो जाता है और शीत ऋतु में दिन के आने-जाने का पता तक नहीं चल पाता। बसन्त ऋतु में दिन में हवा मादक, सुगन्धित और बावरी होती है, टूटे हुए शरीरों में भी संजीवनी फूंक देती है। शिशिर का दिन कंपकंपा देता है, शरद का दिन शिशु-सा सुकुमार एवं अल्हड़ प्रतीत होता है। हमारे देश में छह ऋतुएँ होती हैं और सब एक दूसरे से बिलकुल भिन्न। सारांश यह कि प्रकृति ने सभी दिनों को एक जैसा नहीं बनाया। सूक्ति में दिन का ध्वन्यार्थ है काल। काल बड़ा बलवान है, परिवर्तनशील है। प्रकृति पुरातनता का निर्भीक एक पल भी नहीं सह सकती –

पुरातनता का यह निर्मोक
सहन करती न प्रकृति पल एक।

संस्कृत में उक्ति है “चक्रवत् परिवर्तन्ते दुःखानि च सुखानि च।” व्यक्ति के जीवन में भी उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। कष्टदायक दिनों को उतार और सुख के दिनों को चढ़ाव कहा जाता है। जीवन में अच्छे दिन भी आते हैं और बुरे दिन भी। सुखदायक दिनों का स्थान ले लेते हैं दुःखपूर्ण दिन और दुःखपूर्ण समय सुखमय क्षणों में बदल जाता है। हाँ, सत्य है कि दुःख के दिन लम्बे होते हैं और सुख के दिन मेहमान की तरह केवल कुछ दिन ठहर पाते हैं-

सुख के दिन केवल दो चार।
दुःख के कल्प अपार।।

अंग्रेजी में दो कहावतें हैं – Change is the law of nature अर्थात् परिवर्तन प्रकृति का अटल नियम है तथा Time and Tide wait for none अर्थात् समय और ज्वार किसी का इंतजार नहीं करते। बात एक ही है, समय सबका शास्ता है, सब पर शासन करता है, सब उसके अधीन हैं:

सत्य तुम्हारी रजन्यष्टि, सम्मुख नत त्रिभुवन
भूप, अकिंचन, अटल शास्ति नित करते करते पालन
तुम्हारा ही अशेष व्यापार, हमारा भ्रम, मिथ्याहंकार
तुम्ही चिरन्तन, अहे विवर्तनहीन विवर्तन।

काल के आगे सुर, मुनि, सम्राट, सेनापति सब नतशिर हैं। समय के रथ के चक्र के साथ शत-शत भग्य घूमते रहते हैं।

काल के प्रभाव से कोई नहीं बच पाता – न व्यक्ति, न समाज, न देश और न प्रकृति। पल भर में राजा रंक बन जाता है और रंक राजा। जिसे टूटी-फूटी साइकिल तक नसीब नहीं थी, वह कारों का स्वामी हो जाता है। चक्रवर्ती सम्राट फटे हाल, भूखों मारे-मारे फिरते हैं। रोम, यूनान, मिस्र जिनको कभी अपनी प्राचीन संस्कृति पर नाज था, आज खण्डहर गये हैं। मिस्र के पिरामिड ही उसकी प्राचीन संस्कृति के स्मारक बन कर रहे गये हैं। नालन्दा एवं तक्षशिला, जो कभी विश्व के विख्यात गुरुकुल थे, शिक्षा-संस्थान थे आज ध्वंसावशेष बन कर रह गये हैं। कभी अंग्रेजों के साम्राज्य में सूरज कभी नहीं डूबता था, आज वह विश्व की द्वितीय शक्ति बन गया है और अमेरिका जो कभी ब्रिटेन का उपनिवेश मात्र था, आज वह विश्व की द्वितीय शक्ति बन गया है और अमेरिका जो कभी ब्रिटेन का उपनिवेश मात्र था आज विश्व का सबसे शक्तिशाली, समृद्ध, सम्पन्न देश हो गया है, सब उससे आतंकित हैं; सब पर दादागिरी चलाता द्वितीय युद्ध के अंतिम चरण में परमाणु बमों के प्रहार से आहत हो दीन-हीन हो गया था, आज वह विश्व के शक्तिशाली राष्ट्रों में एक गिना जाता है, अमेरिका तक उसे आतंकित नहीं कर सकता, वह उसके लिए चुनौती बना हुआ है। भारत पचास-पचपन वर्ष पूर्व पराधीन-परतंत्र देश था, यहाँ सुईं भी बनती थी। आज वह एक स्वतंत्र, सार्वभौमिक सत्ता प्राप्त राष्ट्र है और सैनिक साजो-सामान की दृष्टि से आत्म-निर्भर हो गया है। वह 2020 तक विकासशील देश बनने का स्वप्न ही नहीं देख रहा, उसके लिए प्रयास, घोर परिश्रम तथा अध्यवसाय भी कर रहा है। वह एक औद्योगिक देश बन चुका है। यह समय का ही खेल है कि जिस रावण के एक लाख पुत्र-पौत्र तथा सवा लाख नाती हुआ करते थे, आज उसका नाम लेवा उसके नाम पर दीपक जलानेवाला तक नहीं बचा है।

प्रकृति के आंगन में भी यह उथल-पुथल होती रहती है। जहाँ कभी सागर लहराया करता था, आज वहाँ रेगिस्तान हैं जिनमें धूल-धक्कड़, बवण्डर ठाठें मारते रहते हैं। जहाँ पर्वत-मालाएँ थीं वहाँ सागर लहरा रहे हैं। जहाँ श्माशान थे वहाँ बस्तियाँ हैं और वहाँ बस्तियाँ हैं और जहाँ बस्तियाँ थीं कब्रिस्तान बन गये हैं। हरे-भरे गाँवों और खेतों की जगह लोहे-इस्पात-कंकरीट के जंगल उग आये हैं। कल-कारखाने धुआँ उगल रहे हैं, वातावरण प्रदूषित होकर जीना हराम कर रहा है। काल के एक संकेत पर क्षण-भर में कृषि, वनस्पतियाँ प्रदूषित होकर जीना हराम कर रहा है। काल के एक संकेत पर क्षण-भर में कृषि, वनस्पतियाँ नष्ट होकर राख बन जाती है:

तुम्हीं स्वेद-सिंचित संसृति के स्वर्ण शस्य दल
दलमल देते वर्षोंपल बन वांछित कृषि फल
अये सतत ध्वनी स्पन्दित जगती का दिड़मण्डल।

काल की पलकें झपकने से सृष्टि में प्रलय उपस्थित हो जाति है:

तुम्हारा ही तांडव नर्तन
विश्व का करुण विवर्तन
तुम्हारा ही नयनोन्मीलन
निखिल उत्थान, पतन।

मिलन-वियोग में, जन्म-मृत्यु में, विकास ह्रास में परिवर्तन हो जाता है। यह काल की ही महिमा है।

सारांश यह कि समय बलवान है, उसके आगे किसी की एक नहीं चलती। पर मनुष्य भी कम शक्तिशाली नहीं है। कभी-कभी वह अपने पौरुष, साहस के भाल पर मेख गाड़ जाता है। संसार के महापुरुषों ने अपने व्यक्तित्व तथा कृतित्व से यही कर दिखाया है – भगवान बुद्ध, मर्यादा पुरुषोत्तम राम, ईसा मसीह, गांधी जी, अफ्रीका के नेल्सन मंडेला ऐसे ही महापुरुष रहे हैं जो मरकर भी अमर हो गये हैं। इस सूक्ति का संदेश यही है कि हम काल की चिन्ता न कर सुकर्म करते रहें, अपने कर्तव्य-मार्ग चलते रहें, निराश न हों, लक्ष्य की ओर निरन्तर अग्रसर होते रहें, इस आशा के साथ कि सबै दिन जात न एक समान। एक डाक्टर ने अपने औषधालय के द्वार पर तख्ती लगाव रखी थी जिस पर लिखा था ‘ये दिन भी (अर्थात् रोग, बीमारी के दिन) नहीं रहेंगे।‘ अतः महाभारत के वाक्य ‘आशा बलवती राजन्‘ का अनुसरण कर हमें भी जीनां है, आगे बढना है, निरन्तर प्रगति करना है।

Check Also

दशहरा पर 10 लाइन: विजयादशमी के त्यौहार पर दस पंक्तियां

दशहरा पर 10 लाइन: विजयादशमी के त्यौहार पर दस पंक्तियां

दशहरा पर 10 लाइन: दशहरा भगवान राम की रावण पर विजय का उत्सव है, जो …