बच्चा भगवान का प्रतिरूप होता, बच्चा भगवान की देन है, ‘child is the father of man‘ आदि उक्तियाँ बच्चों का महत्त्व बताती है; उसका गुणगान करती हैं। वस्तुतः बच्चे का भोलापन, नटखटपन, बाल-सुलभ चेष्टाएँ, बाल-क्रीड़ाएँ सबको मुग्ध कर देती हैं और मानव बच्चे के प्रति ममत्व अनुभव करने लगता है, भले ही वह अपना न होकर पराया हो। कवियों ने अपनी कविताओं में बच्चे के स्वभाव, उसकी भोली-भाली बातों, उसकी चेष्टाओं-क्रीडाओं का बड़ा हृदयहारी वर्णन किया है। सूरदास के अनेक पद बाल-स्वभाव एवं बाल-क्रीडाओं का मार्मिक चित्र प्रस्तुत करते हैं – मैया! मै नहीं माखन खायौ, मैया! कबहिं बढ़ेगी चोटी, आदि पद इसके प्रमाण हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान की पंक्तियाँ:
‘माँ ओ कहकर बुला रही थी
मिट्टी खाकर आयी थी
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में
मुझे खिलाने आयी थी
……..
नन्दनवन सी गूँज उठी वह
छोटी-सी कुटिया मेरी’
किसे भावविह्वल नहीं कर देतीं। साहित्य-शास्त्र में इसीलिए दस रसों में वात्सल्य रस भी है। बच्चा ही बड़ा होकर देश का नागरिक होता है और उसके कंधों पर देश के निर्माण का भार होता है इस तथ्य को सब जानते हैं। पं. जवाहर लाल नेहरु बच्चों से प्रेम के कारण ही चाचा नेहरू कहलाये और उनका जन्म-दिवस के रूप में मनाया जाता है। वर्तमान राष्ट्रपति इ.पी.जे. अब्दुल कलाम भी जहाँ जाते हैं वहाँ के बालकों एवं छात्रों से मिलते हैं। बच्चों की उम्र खाने-पीने, खेलने-कूदने, शिक्षा प्राप्त करने की उम्र होती है। परन्तु जब हम इन निरीह, मासूम, भोले, निश्चल-निष्कपट हृदयवाले बच्चों को खेलने-कूदने, शिक्षा प्राप्त करने की बजाय ढाबों, छोटे-छोटे होटलों, हलवाइयों की दुकानों, छोटे-मोटे उद्योगों में कड़ी मेहनत करते देखते हैं, उनके दुर्बल शरीरों और मुर्झाये चेहरों पर हमारी दृष्टि पड़ती है, तो हमारा हृदय पीड़ा, करुणा और आत्मग्लानि से भर उठता है।
बाल-मजदूर समस्या पर हिन्दी निबंध
भारत में बाल-मजदूरी के तीन रूप प्रमुख हैं। आठ-नौ वर्ष की उम्र से पन्द्रह-सोलह वर्ष तक की आयु के बच्चे-किशोर हलवाइयों की दूकानों, ढाबों, छोटे-छोटे होटलों और सम्पन्न परिवारों के घरों में काम करते हैं। परिवारों में काम करनेवाले बाल-मजदूरों की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी है, परन्तु अन्यत्र इन बालकों को प्रातः काल से देर रात तक कोल्हू के बैल की तरह काम करना पड़ता है। वे बर्तन माँजते हैं – कप, प्लेट, थाली से लेकर बड़ी-बड़ी कड़ाहीयों तथा सब्जी, दाल, चाय बनानेवाले विशालकाय ड्रमों तक। मिट्टी, राख, जूने से इन बर्तनों को मांजने-धोने से उनके कोमल सुकुमार हाथ कठोर, खुरदरे और लहू-लुहान तक हो जाते हैं। ग्राहकों की सेवा करते-करते, इधर से उधर भागते-भागते उनके पैर दर्द करने लगते हैं। आधी रात तक काम करने के बाद थक कर चूर होने के बाद जब ऊँघते-ऊँघते उनके सोने की घड़ी आती है तो काम करने के स्थान पर ही खुरदरी जमीन के नंगे फर्श पर, हलवाई की भट्टी के पास सोना पड़ता है। कमर के नीचे न खाट होती है, न बिस्तर। सर्दियों में ठिठुरते, झुलसते और वर्षा में भीगते हुए रात जैसे-तैसे कटती है। इनके मालिक किसी नियम से बंधे नहीं हैं – मनमाना वेतन देते हैं, छुट्टी देते नहीं, काम पर न आने पर वेतन में कटौती करते हैं, छोटी-छोटी गल्तियों पर गालियाँ देना तो आम बात है, मारते-पीटते भी हैं, खाने के लिए बचा-खुचा भोजन और कभी-कभी जूठन तक दी जाती है। यदि कभी कोई नुकसान हो जाये, चोरी हो जाए तो उसके लिए भी इन बाल-मजदूरों को दोषी बताकर उन पर अत्याचार किया जाता है।
दूसरे प्रकार के बाल-मजदूर हैं छोटी-छोटी फैक्ट्रियों या उद्योग धंधों में काम करनेवाले बालक। कालीन बनानेवाले, बीड़ी बनानेवाले, माचिस बनानेवाले छोटे-बड़े उद्योगों में ये बच्चे काम करते हैं। इनको भी बारह-चौदह घंटे काम करना पड़ता है और काम करने का स्थान इतना प्रदूषित और स्वास्थ्य के लिए इतना हानिकर होता है कि वहाँ काम करनेवालों का स्वास्थ्य चौपट हो जाता है, वे अनेक रोगों के शिकार असमय ही संसार से कूच कर देते हैं। इस प्रकार इन बाल-मजदूरों का जीवन बड़ा ही दयनीय और यातनामय होता है।
बाल-मजदूरों का एक अन्य वर्ग भी है। ये बच्चे किसी के अधीन काम करते। प्रातः काल होते ही कन्धे पर जूट का बोरा या थैला लेकर घरों से निकल पड़ते हैं और इधर-उधर फीके हुए गन्दे, फटे, तुडे-मुड़े कागज, डिब्बे, बोतलें पोलीथिन के लिफाफे, प्लास्टिक के टुकड़े, चमड़े की चप्पलें-जूते, लोहे की वस्तुएँ बीनते फिरते हैं और इन्हें बोरों में भरकर कबाड़ी के पास जाकर कुछ पैसों में बेच देते हैं। इनका जीवन उतना कष्टमय तो नहीं है जितना अन्य बाल-मजदूरों का, पर जिनका समय और शक्ति पढने-लिखने और बौद्धिक विकास में बीतना चाहिए था उसकी बरबादी होती है और वे अच्छे नागरिक बनने के अधिकार से वंचित रहते हैं। इससे देश के निर्माण में भी बाधा पड़ती है।
ये बाल-मजदूर आते कहाँ से हैं? सीधा-सरल उत्तर हैं उन गरीब परिवारों से जो अभवग्रस्त होते हैं, जिनका घर का खर्च घर के मुखिया की कमाई से पूरा नहीं होता। वे अपने मासूम भोले बालकों को मजदूरी करने के लिए बाध्य करते हैं ताकि उनके वेतन से उनके घर का काम चल सके, वे भूखों न मरने पाये। ये परिवार गाँवों में भी होते हैं, पर अधिकतर ये लोग नगरों की झुग्गी-झोपड़ियों में बसनेवाले मजदूर होते हैं। कुछ ऐसे भी बालक होते हैं जिनका मन पढाई-लिखाई में नहीं लगता। अतः वे पढने-लिखने की बजाय मजदूरी करना पसन्द करना करते हैं। कुछ माता-पिता के व्यवहार से परेशान होकर और कुछ परीक्षा में उत्तीर्ण न होने के कारण घरों से भाग कर शहरों में चले आते हैं और मजदूरी करते हैं। बुरी संगत में पड़ने पर या किसी के बहलाने-फुसलाने पर भी ये बच्चे अपना घर-गाँव छोड़कर नगरों, कस्बों में मजदूरी करते हैं।
बाल-मजदूरी बच्चों के लिए अभिशाप है, समाज और देश के माथे पर कलंक है। इसके कारण बच्चे शारीरिक कष्ट पाते हैं, मानसिक संताप झेलते है, उनका बौद्धिक विकास नहीं हो पाता, वे देश के लिए भार बन जाते हैं। इस समस्या का समाधान केवल गरीबी दूर करने से हो सकता है क्योंकि इसका मूल कारण गरीबी ही है। अन्य उपाय हैं – शिक्षा को मूल अधिकार मानकर, सब बच्चों के लिए शिक्षा-सुविधाएँ प्रदान करना था कानून बनाकर बाल-मजदूरी की प्रथा को समाप्त कर देना। कानून बनाना ही पर्याप्त नहीं है, उसका पालन करने के लिए शासन-तंत्र को चुस्त-दुरुस्त भी बनाना है।