अमेरिका के वैज्ञानिक टामस एल्वा एडिसन ने सन् 1894 में चलचित्र का आविष्कार किया। उस समय मूक फिल्में ही बनती थीं। कुछ वर्षों बाद फिल्म में वाणी देने में डाडस्टे नामक वैज्ञानिक ने सफलता प्राप्त की। अमेरिका से इंग्लैण्ड होता हुआ चलचित्र भारत में पहुँचा। भारत को चलचित्रों की दुनिया में प्रवेश कराने वाले ‘दादा साहब फाल्के’ थे। जिन्होंने सन् 1913 में पहली भारतीय फिल्म ‘हरिश्चन्द्र’ बनाई थी जो मूक थी। बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ सन् 1931 में बम्बई में बनी थी। आज हालीवुड के पश्चात् भारत फिल्म बनाने में दूसरा स्थान रखता है।
सिनेमा में पहले तस्वीरें श्वेत-श्याम होती थी। लेकिन आजकल रंगीन फिल्म बनने लगी हैं, जो देखने में आकर्षक लगती हैं और दर्शकों को अपनी ओर खींच लेती हैं। इन रंगीन फिल्मों को घर बैठे ही रंगीन टी.वी. पर देख सकते हैं। फिल्में पहले धार्मिक और पौराणिक बनीं। धीरे-धीरे सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को दर्शानें वाली फिल्मों का निर्माण हुआ। सुजाता, अछूत कन्या, तपस्या, छत्रपति शिवाजी, जागृति आदि फिल्में सामाजिक समस्याओं और राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत थी। इसके पश्चात् इनका क्षेत्र विस्तृत होता गया और सभी विषय इसकी परिधि में आ गए।
चलचित्र शिक्षा का प्रमुख साधन है। सुनने और पढ़ने की अपेक्षा किसी विषय को देखकर समझना सरल है। ऐतिहासिक, भौगोलिक, प्राकृतिक, वैज्ञानिक, कृषि सम्बन्धी आदि विषयों की जानकारी चलचित्रों के माध्यम से दर्शकों को दी जाती हैं। छोटे-छोटे वृत्त चित्रों से नैतिक शिक्षा दी जाती है। भारत की अधिकतर जनता अनपढ़ है। यदि उसे वैज्ञानिक कार्यक्रमों की जानकारी चलचित्रों के माध्यम से दी जाएगी तो वह शीघ्र समझ जाएगी। राष्ट्रभाषा हिन्दी को लोकप्रिय बनाने में भी चलचित्रों का बहुत बड़ा स्थान है। इसलिए फिल्में बनाते समय भाषा पर विशेष ध्यान देना चाहिए। बड़ी-बड़ी कम्पनियां व्यावसायिक विज्ञापन फिल्मों में दिखाती है। अपने प्रचार के लिए छोटी फिल्में भी बनाती है। सरकार अपनी नई-नई योजनाओं का प्रचार भी चलचित्रों द्वारा करवाती है।
चलचित्र यदि हमारे जीवन को सुधारता है तो वहीं पतन की ओर भी ले जाता है। लगातार तीन घण्टे तक बैठे रहने से या अधिक चलचित्र देखने से आंखे खराब हो जाती हैं। कई व्यक्ति एक ही फिल्म तीन-चार बार देखते हैं। जिससे धन और समय दोनों की हानि होती है। आज फिल्मों में अंग-प्रदर्शन, हिंसा, बलात्कार, चोरी डकैती, खून, लूटपाट के दृश्य नैतिक सीमाओं को पार कर गए हैं। ऐसी फिल्में बालक मन और युवा पीढ़ी पर बुरा प्रभाव डालते हैं। बच्चे फिल्में देखकर अच्छी बातें कम और बुरी बातें ज्यादा सीखते हैं। बच्चे, अभिनेता या अभिनेत्री बनने के चक्कर में उनके डॉयलोग बोलते हैं। उनकी चाल, गाने और बालों की नकल करते हैं। उनकी अपनी स्वाभाविक प्रतिक्रियाएं समाप्त हो जाती है।
फिल्में समाज पर गहरा प्रभाव डालती हैं। इसलिए सरकार और निर्माताओं को इस पर विशेष ध्यान देना चाहिए। राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित फिल्में रविवार या विशेष छुट्टी वाले दिन दिखाई जानी चाहिए। दूरदर्शन भी अपनी फिल्में बनाता है। ‘जनम’ उसकी सर्वश्रेष्ठ फिल्म है। लूटपाट, मारधाड़ के अतिरिक्त पारिवारिक फिल्में भी लाखों नहीं करोड़ों रुपये कमाती है। सन् 1994-95 में बनी ‘हम आपके हैं कौन’ फिल्म ने सौ करोड़ से भी अधिक रुपये कमाए जो अपने आप में एक रिकार्ड है। निर्माताओं को इसी प्रकार की उत्तम फिल्में बनानी चाहिए।