1920-1930 तक स्त्रियों की शिक्षा के लिए जो विद्यालय खोले गये उनमें केवल लड़कियाँ पढती थीं। शेष शिक्षा-संस्थानों में केवल लड़कों के पढने की व्यवस्था थी, वहाँ लड़कियों का प्रवेश वर्जित था। यह स्थिति काफी समय तक बनी रही। लड़कियों ने जब अपनी प्रतिभा का परिचय दिया, परीक्षा-परिणामों में लडकियों ने लड़कों से बढकर सफलता प्राप्त की और जीवन के अनेक क्षेत्रों में जब उन्होंने पुरुषों के कन्धा मिलाकर काम किया तो स्वाभाविक था कि सहशिक्षा की माँग सुनाई देने लगी। प्रायः लड़कों के विद्यालयों में जितने योग्य अध्यापक होते थे, जितनी सुविधाएँ-पुस्तकालय, प्रयोगशालाएँ आदि होती थीं उतनी केवल लड़कियों के विद्यालयों में नहीं। इन्हीं सब बातों को देखकर लड़कियों को लड़कों के विद्यालयों में प्रवेश देने की बात ने बल पकड़ा। एक कारण यह भी था कि समय के साथ-साथ हमारी मानसिकता में परिवर्तन हुआ। पहले समझा जाता था कि किशोर-किशोरी अपरिपक्व बुद्धि के होते हैं, दुनियादारी नहीं समझते, इस आयु में परस्पर आकर्षण भी होता है और सम्भव है वे यौनाचार में लिप्त हो कर अपना अहित कर बैठें, विशेषतः लड़कियाँ जिन्हें प्रकृति ने गर्भधारण का भार सौंपा है। जब यह विचार, मानसिकता बदली तो लड़कियों को लड़कों के विद्यालयों में धीरे-धीरे प्रवेश मिलने लगा और सहशिक्षा आरम्भ हुई। योग्य अध्यापकों के अध्यापन तथा पुस्तकालय-प्रयोगशालाओं की सुविधा पाकर लड़कियों ने अपनी योग्यता, प्रतिभा का परिचय दिया। अतः जो विद्यालय और महाविद्यालय पहले लड़कियों को प्रवेश नींद देते थे, उन्होंने भी अपने द्वार लड़कियों के लिए खोल दिये। दिल्ली में हंसराज महाविद्यालय में बहुत समय तक केवल लड़कों को प्रवेश मिलता था, परन्तु कुछ वर्ष पहले उसमें भी सहशिक्षा आरम्भ हो गयी।
सहशिक्षा के अनेक लाभ हैं। किशोर-किशोरी को एक-दूसरे की प्रकृति, स्वभाव जानने का अवसर मिलता है। उनमें प्रतिस्पर्धा का भाव जागता है अतः अधिक परिश्रम कर परीक्षा में ऊँचा स्थान प्राप्त करने की होड़ लगती है। दोनों का लाभ होता है। महिला विद्यालयों में जो सुविधाएँ नहीं उपलब्ध हैं, और जिन सुविधाओं से वंचित रहने के कारण लड़कियाँ अपने व्यक्तित्व का समुचित विकास नहीं कर पातीं, उन्हें सहशिक्षावाली शिक्षा-संस्थाओं में पाकर लाभान्वित होती हैं। मनोविज्ञान की दृष्टि से भी सहशिक्षा लाभदायक है, वह छात्रों-छात्राओं को कुण्ठा मुक्त करती है और कुण्ठामुक्त व्यक्ति निश्चय ही अधिक सफल होता है। कुण्ठाग्रस्त व्यक्ति का मानसिक और बौद्धिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।
कुछ लोगों का विचार है कि सहशिक्षा छात्राओं के लिए हानिकर है। उनकी आशंका है कि आज की भौतिकतावादी सभ्यता, उपभोक्ता प्रवृतियों, सिनेमा आदि के प्रभाव से नासमझ या अपरिपक्व बुद्धि के किशोर-किशोर अनैतिक मार्ग पर चलकर अपना, अपने परिवार का और समाज का अहित करेंगे। लड़कों को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए लड़कियाँ फैशन करेंगी, अंगों का प्रदर्शन करेंगी और लड़के लड़कियों को आकृष्ट करने के लिए उन्हें प्रलोभन देकर अपने जाल में फंसायेंगे। परिणाम होगा अश्लील, अमर्यादित आचरण। विद्यालयों का वातावरण दूषित हो जायेगा, पढाई-लिखाई ठप्प हो जायेगी, सारा समय, शक्ति, प्रतिभा केवल एक-दूसरे को आकर्षित करने के व्यय होंगे। शिक्षा का उद्देश्य ही समाप्त हो जायेगा। शिक्षालय शिक्षा के संस्थान न होकर यौनाचार के अड्डे बन जायेंगे।
यह सच नहीं है कि विद्यार्थी जीवन में छात्र-छात्राओं की बुद्धि अपरिपक्व होती है, आज के लड़के-लडकियाँ अपना हित-अहित समझते हैं। यौनाकर्षण होता है, परस्पर एक दूसरे के निकट आते हैं, घनिष्ट मित्र भी बन जाते हैं और कभी-कभी प्रेम भी कर बैठते हैं। यदि प्रेम सच्चा होता है तो वे विवाह-बन्धन में बन्धन में बंध जाते हैं और माता-पिता की चिन्ता को कम ही करते हैं। यदि विवाह नहीं भी हो पाता तो मर्यादा में रहने के कारण कोई अनिष्ट नहीं होता। शारीरिक शुचिता का आज उतना महत्त्व नहीं रह गया है जितना कुछ वर्ष पूर्व था। अपहरण, बलात्कार का कारण सहशिक्षा नहीं है, बलात्कार पढनेवाली छात्राओं का कम अन्य युवतियों का अधिक होता है। अतः मिथ्या आशंकाओं के कारण नारी जाति के विकास-पथ को अवरुद्ध करना और देश की प्रगति में बाधा डालना अनुचित ही है।