सर्वेषामपि भार्त्यानां व्यसने समुपस्थिते
वाड़मात्रेणापि साहायं मित्रादन्यो न संदधे।
अर्थात् संकट आने पर संसार में मित्र के अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति वाणी से भी सहायता नहीं करता। अंग्रेजी की उक्ति ‘A friend in need is a friend indeed’ का अर्थ भी यही है कि सच्चा मित्र वह है जो आपदा के समय काम आये, सहाय करे, संकटमोचन सिद्ध हो। महाकवि तुलसीदास की पंक्तियाँ:
धीरज धर्म मित्र और नारी
आपदकाल परखिये चारी
भी सच्चे मित्र की कसौटी आपदकाल बताती हैं। वस्तुतः जीवन में सच्चा मित्र, उसके विचार, उसके कार्य संकटग्रस्त व्यक्ति को संकटमुक्त करने में सहायक होते होते हैं। कठिन से कठिन कार्य को सरल बना देते हैं, निराशा में आशा का, उत्साहहीन मन में उत्साह का संचार करते हैं, धैर्य बंधाते हैं, ढाढस बंधाते हैं, नए-नए कार्य करने की प्रेरणा देते हैं, सुख के क्षणों में सुख की मात्रा बढ़ाते हैं। सन्मार्ग पर चलने तथा दुष्मार्ग से बचने की सलाह देकर वे जीवन को सफल और सार्थक बनाते हैं।
जब मैं अपने अतीत की पुस्तक के पन्ने उलटने लगता हूं तो उन पन्नों से झाँकने लगती है रमेश की तस्वीर जो सच्चा मित्र था, जिसमें उपर्युक्त उद्धृत सूक्तियों के सभी गुण, सभी लक्षण विद्यमान थे।
हम दोनों का जन्म एक ही हवेली में हुआ जिसके विभिन्न भागों में चार-पाँच परिवार रहते थे। संयोग की बात देखिये कि मैं उससे लगभग पन्द्रह दिन पूर्व धरती पर आया और मेरी तथा उसकी माता का प्रसव करानेवाली दाई भी एक ही थी। एक ही हवेली में रहने और समवयस्क होने के फलस्वरूप हम लंगोटिया यार बन गये। साथ-साथ पढ़ते, साथ-साथ खेलते, साथ-साथ सैर-सपाटा करते और कभी-कभी किसी छोटी-सी बात पर झगड़ भी पड़ते। दो-एक दिन कुट्टी रहती और फिर सबकुछ भूलकर ‘वही रफ्तार बेढंगी जो पहले थी सो अब भी है’ उक्ति को चरितार्थ करने लगते।
मैं वह दिन आज भी नहीं भुला हूँ जब शाम के समय विद्यालय के खेल-मैदान में हाकी खेलते समय उसकी हॉकी-स्टिक का प्रहार मेरी टांग पर पड़ा और मेरे पैर की हड्डी टूट गयी। उसने जान बुझकर ऐसा नहीं किया था, खेल में प्रायः चोट-फेंट लगती ही रहती है। मुझे मैदान से उठाकर डाक्टर के पास ले जाया गया और टूटी हड्डी पर प्लास्टर चढाया गया। मुझे पन्द्रह दिन तक खाट गोड़नी पड़ी। रमेश इस दुर्घटना के लिए स्वयं को उत्तरदायी मान रहा था, मेरी मां से क्षमा मांग रहा था।
पन्द्रह दिन तक वह प्रातः सन्ध्या मेरे पास आ बैठता, मेरा दिल बहलाता, कभी-कभी अपने जेब-खर्च के पैसों से मेरे लिए फल लाता, कभी टूटी हड्डी की गर्म पानी की बोतल से सिकाई करता। जब तक मैं खाट से उठने और विद्यालय जाने योग्य न हुआ वह लगातार पन्द्रह दिन तक मेरी सेवा करता रहा।
उस दिन से लेकर जब तक वह जीवित रहा, हम अच्छे दोस्तों की तरह कर्तव्य निबाहते रहे। एक अन्य घटना ने भी सिद्ध कर दिया की सच्चा मित्र वह है जो कठिनाई और कष्ट के समय काम आये, अपने अहित और खतरे की चिन्ता न कर मित्र और उसके परिवार की सहायता करे। इन्दिरा गांधी द्वारा आपातकाल की घोषणा के तीन-चार दिन बाद यकायक एक रात को पुलिस आ धमकी और यद्यपि मैं अस्वस्थ था परन्तु पुलिस के सिपाही मुझे पहले निकटवर्ती थाने में और बाद में तिहाड़ जेल में ले गये। मेरे जेल जाने के बाद पत्नी और बिटिया नितान्त असहाय और बेबस हो गये। वातावरण इतना आतंकपूर्ण था कि पड़ौसी चाहते हुए भी कोई सहायता नहीं कर पाये। उन्हें डर था कि यदि उन्होंने मेरे घर की देहलीज पर पैर भी रखा तो गुप्तचर विभाग के लोग उनकी भी धर-पकड़ कर उन्हें यातना देंगे। अतः वे घर आने से भी कतराते थे।
मेरे और मेरे अन्य सहयोगियों के पकड़े जाने का समाचार अगले दिन समाचार-पत्रों में छप गया था। रमेश ने ज्योंही पकड़े गये लोगों की सूचि में मेरा नाम पढ़ा वह सारा काम-काज छोड़कर मेरे घर आया, पत्नी को धैर्य बंधाया, पूछा कि खाने-पीने की कोई चीज की कोई कमी हो तो बतायें, बताने पर वह सारी सामग्री खरीद कर घर लाया। वह सरकारी कार्यालय में मामूली लिपिक था, वेतन बहुत नहीं था अपनी घर-गृहस्थी का काम चलने भर को वेतन मिलता था। पर उसने न तो बात की चिन्ता की गुप्तचर विभाग की रिपोर्ट पर उसकी नौकरी जा सकती है और न अपनी आय से अधिक धन खर्च करने की प्रवाह की।
अगले रविवार को जिस दिन जेल-अधिकारीयों ने घरवालों और मित्रों से मिलने की अनुमति दे दी तो आनेवालों में सबसे पहले आनेवाला व्यक्ति मेरा प्रिय दोस्त रमेश ही था। उसने मुझे बताया कि वह मेरे घर हो आया है, पत्नी तथा बिटिया सकुशल हैं और उसने वचन दिया कि जब तक मैं बंधनमुक्त होकर घर वापिस नहीं पहुँचूंगा वह मेरे परिवार की देखभाल करता रहेगा, मैं निश्चिन्त रहूँ। मैं उसे बरसों से जनता था। अतः चिन्तामुक्त हो गया।
कुछ दिन बाद हम बन्दियों को न्यायालय में पेश किया गया। न्यायाधीश ने जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया, पर उस दिन जो मेरे मित्र, सम्बन्धी, सह-अध्यापक न्यायालय में आये थे उनमें से कोई जमानत देने को तैयार नहीं हुआ। कारण वही था आतंक, यह भय कि सन्देह में उन्हें भी इन्दिरा गांधी विरोधी समझकर उनकी धर-पकड़ की जा सकती है। इस बार भी रमेश ने निर्भय होकर मेरी जमानत दी और मैं मुक्त हो गया। मेरे मन में उस समय भी यह भय था कि जेल के फाटक से निकलते ही या घर पहुँचते ही पुलिस मुझे पुनः बन्दी बना लेगी। जब मैंने अपनी शंका रमेश पर व्यक्त की तो उसने मुझे अपने घर चलने और कुछ दिन रहने का निमंत्रण दिया। मेरी शंका निर्मूल सिद्ध हुई, परंतु मैं मन ही मन रमेश के साहस और उसकी उत्सर्ग भावना की सराहना करता रहा जिसने अपनी नौकरी, अपने घर-परिवार के दुःख की चिन्ता न कर मेरी घोर संकट के समय सहायता की थी।
सच्चे मित्र भाई से भी अधिक सहारा देनेवाली दूसरी भुजा कहा गया है। मेरा मित्र रमेश वस्तुतः मेरी दूसरी भुजा था। उसके प्रति अपने भावों को व्यक्त करने के लिए मैंने अपने शयन-कक्ष में उसका चित्र लगा रखा है।