भारत में लोकतंत्र पर निबंध
यह शासन-पद्धति हमारे लिए कितनी सार्थक और सफल रही है इसका निर्णय करने के लिए सबसे ठोस और प्रामाणिक आधार है विगत पचास वर्षों का भारत का इतिहास, देश की उपलब्धियाँ, देश का विकास, जनता की आर्थिक दशा, उसकी खुशहाली, उसका संतोष-असंतोष, जन समान्य का चरित्रिक, बौद्धिक, नैतिक उत्थान या पतन।
यह मानना पड़ेगा कि पिछले पचास वर्षों में देश ने प्रगति की है, विकास किया है, देशवासियों का जीवन-स्तर सुधरा है। जीवन के अनेक क्षेत्रों में: कृषि-उत्पादन, औधोगिक विकास, चिकित्सा, आन्तरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में हमने उल्लेखनीय सफलताएँ प्राप्त की हैं। जहाँ आजादी से पूर्व सुईं तक का आयात किया जाता था, वहाँ आज हम विदेशों को कारों का निर्यात कर विदेशी मुद्रा अर्जित करते हैं। पर एक तो इन सफलताओं, उपलब्धियों का, क्षेत्र सिमित वर्ग को हुआ: धनवान पहले से अधिक सम्पन्न हुए हैं, गरीब पहले से अधिक गरीब हुए है। आज भी असंख्य भारतवासी गरीबी की सीमारेखा के नीचे रह रहे हैं, भूख से मरनेवालों, किसानों की आत्महत्या के समाचार अखबाड़ों में छपते रहते हैं।
देश के मान-सम्मान की कसौटी यह भी है कि विश्व के राष्ट्रों में उसका कितना मान-सम्मान है, विश्व के संगठनों में संयुक्त राष्ट्र सभा या सुरक्षा परिषद् में उसकी बात कितनी सुनी और मानी जाती है। इस दृष्टि से भी भारत का सम्मान घटा ही है, बढ़ा नहीं है। पं. नेहरू के समय में अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर भारत की बात जितनी ध्यान से सुनी जाती थी उतनी आज नहीं।
वस्तुतः देश की उन्नति, विकास, प्रगति निर्भर करती है उसकी जनता के चरित्र पर, उसके नेताओं के चरित्र, योग्यता, क्षमता और कार्यकुशलता पर। इस दृष्टि से भी भारत आगे बढने की बजाय पीछे ही खिसका है। जनतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक है अनुशासन, नैतिकता, राष्ट्रीय चरित्र, राष्ट्र को सर्वोपरि मानकर, अपने निहित स्वार्थों से ऊपर उठकर त्याग और बलिदान के मार्ग पर चलने की तत्परता। इस दृष्टि से यदि पचास वर्षो का इतिहास देखें तो केवल निराशा, क्षोभ और ग्लानि ही पल्ले पड़ती है। जीवन के सभी क्षेत्रों में भष्टाचार है: प्रान्तों के मुख्य मंत्री, केन्द्रीय सरकार के अनेक मंत्री, अफसर सभी क्षेत्रों मजे भ्रष्टाचार के आरोप लगाये जाते रहे हैं और विडम्बना यह है कि सालों मुकदमा चलने के बाद अभियुक्त निरपराध घोषित कर दिये जाते रहे हैं या सा धारण-सा दंड देकर उन्हें फिर भ्रष्टाचार में लिप्त होने की छूट दे दी जाती है। व्यापार, व्यवसाय, वाणिज्य सभी क्षेत्रों में भ्रष्टाचार है, कहीं तस्करी है, कहीं माफिया, कहीं अंडरवर्ल्ड का दबदबा है। परिणाम यह है कि देश के विकास की गति अत्यन्त धीमी है। चीन और भारत की तुलना करने पर यह कटु सत्य और भी उजागर हो जाता है कि हमने वे लक्ष्य प्राप्त नहीं किये जो चीन ने प्राप्त कर लिये हैं। चीन की आर्थिक और सैन्य शक्ति, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सफलता हम से कहीं अधिक है।
जनतंत्रीय शासन-पद्धति के तीन अंग होते हैं: कार्यपालिका, कानून बनानेवाली संसद या विधान-सभाएँ और न्यायपालिका। कार्यपालिका में नौकरशाही और अफसरशाही का बोलबाला है। संसद की कार्यवाही को देखें तो पता चलता है वह विचारशील लोगों की संस्था नहीं बल्कि गुंडों, पागलों और विक्षिप्तों का अखाड़ा है। न्यायालयों की स्थिति यह है कि एक तो वहाँ भी भ्रष्टाचार ने प्रवेश कर लिया है दूसरे न्याय पाना सामान्य व्यक्ति के बूते के बाहर है क्योंकि उसमें खर्च बहुत होता है तथा तीसरे न्याय की प्रक्रिया इतनी लम्बी तथा पेचीदी भरी है कि न्याय माँगनेवाला मर जाता है और उसकी आत्मा कचहरी की फाइलों में भटकती रहती है।
सारांश यह कि पिछले पचास वर्षों में अनुशासनहीनता, गुंडागर्दी, चारित्रिक पतन का बोलबाला रहा है। देश के सभी वर्ग असंतुष्ट हैं और विडम्बना यह है कि इस दयनीय स्थिति के लिए हम स्वयं को नहीं दूसरों को दोष देते हैं, आत्मनिरीक्षण करने की बजाय दूसरों पर कीचड़ उछालते हैं, चरित्र-हनन करते हैं। यह लोकतंत्र की सफलता नहीं, असफलता है। लोकतंत्र प्रणाली अपने-आप में बुरी नहीं है, उसे चलनेवाले अक्षम, भ्रष्ट और स्वार्थी हैं। अतः इस असफलता और निरर्थकता के लिए हम स्वयं दोषी हैं। यह कहावत ठीक है कि जनता को वैसा शासन मिलता है जिसकी वह पात्रता रखती है।