अर्थशास्त्रियों तथा सांख्यिकी-वेत्ताओं ने गणना की है संसार के विभिन्न देश जो धन और प्राकृतिक संसाधन युद्ध की तैयारी, नेताओं के रख-रखाव, अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण पर खर्च करते हैं, यदि उसका कुछ अंश भी जन-हित के कार्यों में लगाया जाये तो यह धरती स्वर्ग बन सकती है- सभी सुख, शान्ति से रह सकते हैं। अतः भावी सन्तति के लिए, आगे आने वाली पीढ़ियों के हित के लिए भी युद्धों पर विराम लगना चाहिए। युद्ध का मुख्य साधन सशस्त्र सेनाएँ हैं। यदि अस्त्र-शस्त्रों के नव-निर्माण पर, उनके वर्तमान भण्डार पर अंकुश लगाया जाये तो हम सब इस विभीषिका से बच सकते हैं।
द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति पर संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई और अनेक अधिवेशनों में युद्धों की समाप्ति के उपायों पर विचार किया गया। सन् 1946 में अमेरिका, ब्रिटेन और सोवियत रूस ने मिलकर निःशस्त्रीकरण की योजना तैयार की। रूस ने सुझाव यह भी रखा कि सबसे पहले आणविक शस्त्रास्त्रों पर प्रतिबंध लगाया जाये, उन पर नियंत्रण लगाने का कार्य भी शुरू किया गया। इसके लिए एक निःशस्त्रीकरण आयोग भी स्थापित किया गया पर अपने हितों को प्रमुखता देने, अपना वर्चस्व बनाये रखने के कारण ठोस कार्य कुछ न हो सका। 1955 में सोवियत संघ ने अपनी सेना में सात लाख सैनिक कम करने की एक तरफा घोषणा की; 1957 में वारसा सन्धि के देशों में हवाई निरिक्षण का प्रस्ताव रखा; नाटो परिषद् ने इस प्रस्ताव का अनुमोदन किया, पर प्रतिद्वंद्वता, प्रतिस्पर्धा एवं अपना वर्चस्व बरकरार रखने की भावना के कारण निःशस्त्रीकरण की दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई। 1962 ई. में 18 राष्ट्रों की निःशस्त्रीकरण समिति का निर्माण, 1963 में जेनेवा सन्धि तथा अणु-परिक्षण प्रतिबन्ध संधि पर ब्रिटेन, रूस और अमेरिका के हस्ताक्षर सब दिखावा मात्र बन कर रह गये, कोई ठोस व्यवहारिक कदम नहीं उठाया गया। यही परिणाम हुआ 1968 में 61 राष्ट्रों द्वारा परमाणु-शक्ति-निरोध सन्धि पर हस्ताक्षर करने का। उसके बाद भी अनेक सम्मेलन हुए, विचार-विनिमय होता रहा, नए-नए प्रस्ताव पेश किये जाते रहे, पर निःशस्त्रीकरण होने के स्थान पर नए-नए विनाशकारी शस्त्रास्त्रों-न्यूट्रान बन आदि का निर्माण होता रहा।
सब परिचित हैं, भली-भाँती जानते हैं कि मानव जाती का अस्तित्व खतरे में है, भविष्य अन्धकारपूर्ण है और मानव जाती की रक्षा के लिए निःशस्त्रीकरण परम आवश्यक है। परन्तु दुर्भाग्य यह है कि अपने निहित स्वार्थों, अपना वर्चस्व बनाये रखने की कामना, पारस्परिक वैमनस्य, भय, आशकाओं के कारण विश्व को शक्तिशाली राष्ट्र भले ही निःशस्त्रीकरण की दुहाई देते हों, पर कोई भो ठोस व्यावहारिक कार्यवाही नहीं करना चाहता। सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका अकेली विश्व-शक्ति बन गया है, अपने धन-बल के कारण उसका संयुक्त राष्ट्र संघ पर वर्चस्व है और वह अपने वर्चस्व में कोई कमी नहीं चाहता। हाल ही में ईराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन पर मिथ्या आरोप लगाकर, उस पर आक्रमण कर, उसके तेल-भंडारों का स्वामी बनने की उसकी महत्त्वाकांक्षा का पर्दा फाश हो गया है। ऐसी स्थिति में निःशस्त्रीकरण एक सपना मात्र बन कर रह गया है।