दुर्गा पूजा पर निबंध
इस उत्सव से जुड़ी दो पौराणिक कथाएँ हैं। एक के अनुसार राम ने लंका और लंका के अधिपति रावण के अपराजित स्वरूप और शक्ति को देख तथा उसका कारण देवी द्वारा रावण का पक्ष गृहण जानकर देवी को अपने पक्ष में करने के लिए निरन्तर नौ दिन तक देवी की उपासना की थी और राम की उस एकनिष्ठ भक्ति से प्रसन्न होकर देवी ने उन्हें आशीर्वाद दिया था:
जय हो, जय हो, हे पुरुषोत्तम नवीन
कह शक्ति राम के बदन में हुई लीन।
राम की रावण पर विजय का कारण देवी का आशीर्वाद मानकर सभी भारतवासी दशहरे या विजयादशमी से पूर्व नौ दिन तक व्रत-उपवास रखते हैं, देवी की पूजा करते हैं।
दूसरी कथा के अनुसार महिषासुर नामक दैत्य से अत्यधिक आतंकित, उत्पीड़ित देवताओं ने अपनी रक्षा के लिए ब्रह्मा जी से प्रार्थना की। उसके परामर्श पर देवताओं ने अपनी-अपनी शक्तियों का समन्वय कर एक अदम्य शक्ति का सृजन किया। देवी दुर्गा ही थीं। उन्होंने लगातार नौ दिन तक महिषासुर से युद्ध कर उस पर विजय प्राप्त की। अतः महिषासुरमर्दिनी दुर्गा की नौ दिन तक पूजा करने की परम्परा चली।
दुर्गा पूजा का पर्व केवल एक दिन नहीं मनाया जाता। पहले नौ दिन तक पूजा-पंडालों को खूब सजाकर, संवारकर, अलंकृत कर, उनमें देवी की प्रतिमा या बड़ा-चित्र लगाकर दिन-रात पूजा की जाती है। रात में विशेष रूप से भीड़ उमड़ती है। इन पूजा-पंडालों में रात को देवी की आरती, स्तोत्र-पाठ, स्तुति-गान का प्रसारण ध्वनी-विस्तारक यंत्रों द्वारा रात-भर होता रहता है। प्रातःकाल होते-होते एकत्र जन-समुदाय को प्रसाद दिया जाता है। प्रसाद में हलवा और उबले हुए चने होते हैं। भक्तगण देवी की प्रतिमा के आगे उपहार-भेंट के रूप में चढावा चढाते हैं। कुछ अधिक श्रद्धालु भक्त व्रत भी रखते हैं। पूजा-पंडालों को तरह-तरह से सजाने-संवारने तथा सुन्दर से सुन्दर देवी की प्रतिमा स्थापित करने और उत्सव मनाने की होड़ सी लग जाती है। पर यह प्रतिस्पर्धा स्वस्थ होती है, उसमें ईर्ष्या-द्वेष के भाव नहीं होते। दुर्गा दुर्गा-पूजा के लिए कलकत्ता में बाहर रहनेवाले बंगाली अवकाश लेकर कलकत्ता पहुँचते हैं। भीड़ को देखते हुए रेलवे-विभाग विशेष रेलगाड़ियों का प्रबन्ध करता है जिन्हें पूजा-स्पैशल कहा जाता है।
यह मूर्तिकारों, शिल्पकारों तथा उनके सहायक कर्मचारियों के लिए भी वरदायक होता है। दुर्गा-पूजा के अवसर पर पूजा-पंडालों की संख्या और उनमें से प्रत्येक में दुर्गा की मूर्तियाँ अथापित करने के कारण मूर्तियों की माँग बहुत होती है। इसी का अनुमान लगाकर मूर्तिकार और शिल्पकार वर्ष-भर देवी की विभिन्न रूपाकार वाली मूर्तियाँ गढ़ते और उन्हें तरह-तरह से सजाते-सवारते-अलंकृत करते रहते हैं उनकी आजीविका का साधन होने के कारण यह त्यौहार उनके लिए हर्षोल्लास का कारण बनता है।
पूजा के अन्तिम दिन मूर्तियों का विसर्जन बड़े हर्षोल्लास, धूम-धाम से, जुलूस निकाल कर किया जाता है। नगर के विभिन्न स्थानों से प्रतिमा-विसर्जन के जुलूस निकलते हैं और सब किसी न किसी सरोवर या नदी के तट पर पहुँचकर इन प्रतिमाओं का जल में विसर्जन करते हैं। रथों या अन्य रूपाकार के वाहनों पर प्रतिमाओं को प्रतिष्टित कर गाजे-बाजे, शंख-घड़ियाल, स्तुति-स्तोत्रों की ध्वनियों के साथ देवी दुर्गा की जयजयकार करते हुए, विधिवत् पूजा तथा मन्त्रों के उच्चारण के साथ मूर्तियाँ जल में विसर्जित की जाती हैं। इसी प्रकार दुर्गा-पूजन समारोह श्रद्धा-भक्ति, हर्षोल्लास, उमंग, उत्साह से सम्पन्न होता है। यह पर्व बंगला-संस्कृति और देवी के प्रति पूर्ण निष्ठा, भक्ति-श्रध्दा का प्रतीक पर्व है और बंगाल के रहनेवाले वर्ष-भर बड़ी आतुरता से इसकी प्रतीक्षा करते रहते हैं।