शिक्षा के माध्यम से तात्पर्य है वह भाषा जिसमें शिक्षार्थी को शिक्षा दी जाये, जिसमें लिखी हुई पुस्तकों का अध्ययन उसे करना पड़े। शिक्षा का आरम्भ बचपन से ही हो जाता है। पाँच – छः वर्ष की आयु का बालक नर्सरी स्कूल या प्राथमिक पाठशाला में जाने लगता है। ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेजी तीसरी कक्षा से ही पढाई जानी शुरू कर दी जाती थी और सातवीं – आठवीं कक्षा में उसे इतिहास, भूगोल आदि की शिक्षा के लिए भी अंग्रेजी की पुस्तकें पढने को दी जाती थीं। अब स्थिति बदल गयी है।
आज सब स्वीकार करते हैं कि प्राथमिक शिक्षा बच्चे को मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए क्योंकि वह उसे सरलता से समझता है। दूसरी किसी भाषा में पढ़ाने से पढने में अरुचि पैदा होगी, वह पढाई से कतराने लगेगा और उसकी शिक्षा का मार्ग बंद हो जायेगा। मातृभाषा में पढ़ाने से सहज ही शिक्षा के संस्कार बच्चे के मन में जम जाएँगे और पढने-लिखने में उसकी रूचि और उत्साह बना रहेगा। आज स्थिति यह है कि केवल कुछ विद्यालयों के अतिरिक्त जो अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने में गर्व करते हैं और जिनमें उच्चवर्ग के लोग अपने बच्चों को पढ़ाते हैं सामान्यतः सभी विद्यालयों में उच्च माध्यमिक स्तर तक अध्ययन-अध्यापन मातृभाषा में होता है।
समस्या उच्चतर माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करने और परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद खड़ी होती है जब विद्यार्थी महाविद्यालय में बी.ए., बी.ए. (आनर्स) या बी.एस.सी., बी.कॉम. की उपाधि पाने के लिए अध्ययन आरम्भ करता है। सामान्य विद्यार्थी चाहता तो यही है कि आगे की पढाई भी मातृभाषा में करे क्योंकि इस समय तक अंग्रेजी का जो ज्ञान उसने प्राप्त किया है (मार-मार कर हकीम बनाने की तरह) वह भी अधकचरा होता है और कक्षा में अंग्रेजी के माध्यम से अध्यापन करनेवाले अध्यापक की बात समझना उसने लिए कठिन होता है – कुछ समझता है और कुछ अर्थ का अनर्थ कर देता है। जो पुस्तकें पाठ्यक्रम में निर्धारित होती हैं उनको पढकर विषय को समझना भी बहुत कठिन होता है क्योंकि पहले अंग्रेजी में जो कुछ लिखा है उसे समझो और फिर विषय के बारे में जानकारी प्राप्त करो। उसे विषय को समझने के लिए दुगुनी मेहनत करनी पड़ती है। परिणाम होता है विषय से अरुचि, परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त न कर पाना या अनुतीर्ण हो जाना। विषय का ज्ञान तो अधकचरा रहता ही है।
शिक्षाविदों ने विद्यार्थियों की इस कठिनाई को पहचाना, समझा और माना कि इस को दूर किया जाना चाहिए। इसके लिए उन्होंने सुझाव भी दिये – पाठ्यपुस्तकें मातृभाषा में तैयार कर छात्रों की जाएँ अध्यापक कक्षा में अध्यापन अंग्रेजी में न कर मातृभाषा में करें। सुझाव तो ठीक ही थे, पर व्यवहार में जो कुछ हुआ नितान्त असन्तोषजनक था; स्थिति सुधरने की बजाय बिगड़ती गयी। कहावत है चौबे जी गये थे छब्बे होने को पर रह गये दुब्बे ही। मातृभाषा में पाठ्यपुस्तकें लिखनेवालों ने मौलिक पुस्तकें न लिखकर अंग्रेजी में लिखी गयी पुस्तकों का अनुवाद मात्र कर दिया। यह अनुवाद भी भ्रष्ट था तथा अंगेजी पारिभाषिक शब्दों को या तो ज्यों का त्यों अपनाया गया था