पर्यावरण संरक्षण या प्रदूषण की समस्या: पर्यावरण का अर्थ है जिस भूमि पर हम रहते हैं उसके आसपास का वायुमंडल, वातावरण, जलवायु, प्राकृतिक परिवेश और संरक्षण का अर्थ है रक्षा करना, सुरक्षित रखना। पर्यावरण का संरक्षण का अर्थ है रक्षा करना, सुरक्षित रखना। पर्यावरण का संरक्षण किस्से? प्रदूषणों से। तात्पर्य यह है कि विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों से, वातावरण की स्वच्छता तथा शुद्धता को नष्ट करनेवाले पदार्थों जैसे विषैली गैसों, विषाक्त रासायनिक पदार्थों, गंदगी, कूड़े-कचरे आदि से। पर्यावरण संरक्षण की समस्या प्रदूषण से मुक्त रहने की समस्या का ही दूसरा नाम है।
पर्यावरण संरक्षण या प्रदूषण की समस्या पर हिंदी निबंध
मनुष्य का जन्म और उसका आरम्भिक जीवन प्रकृति की सुरम्य गोद में ही होता है। उसने आरम्भ में ही यह अनुभव कर लिया कि प्रकृति उसकी जननी है, पालन-पोषण करनेवाली धाय है, स्वच्छ और शुद्ध वातावरण में रहनेवाले ही स्वस्थ, निरोग और प्रसन्नचित्त रह सकते हैं। अतः उसने प्रकृति की पूजा की, सूर्य, चन्द्रमा, जल, वायु, अग्नि को देवता मानकर उनकी अर्चना की और प्रार्थना की वे शान्त रहें। गायत्री मंत्र और शान्ति पाठ “ॐ धौ शान्तिः, अन्त्रिक्ष्म् शान्तिः, पृथ्वी शान्तिः, आपः शान्तिः, ओषधयः शान्तिः“, इसके प्रमाण हैं।
प्रदूषण की समस्या विज्ञान, प्रौधोगिकी, औधोगिक संस्कृति की देन है, औधोगिक समृद्धि की चाह का अभिशाप है। सृष्टि के आरम्भ में प्रदूषण का नाम-निशान तक न था। प्रकृति में सन्तुलन बना हुआ था-वायु, जल, पृथ्वी, आकाश सब स्वच्छ थे।
प्रदूषण मुख्यतः चार प्रकार का होता है – जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनी प्रदूषण तथा भूमि प्रदूषण। यह गाँवों, प्रकृति के मुक्त प्रांगण-वनों, पर्वतों में नहीं होता, घनी बस्तीवाले नगरों में होता है जहाँ कारखाने, मिलें, धुँआ उगलती हैं, विभिन्न प्रकार के वाहन कोलाहल से ध्वनी प्रदूषण करते हैं। प्रदूषण नगर-जीवन का महान अभिशाप है जिसे देखकर कविवर सुमित्रानंदन पंत ने लिखा था:
दूषित वायु, दूषित जल कैसे हो जीवन-मंगल
क्षीण आयु, क्षुब्ध जल कैसे हो जन्म सफल।
जल प्रदूषण:
मल-मूत्र, नहाने-धोने के बाद का गंदा पानी, कारखानों-मीलों का कूड़ा-कचरा और रासायनिक द्रव्य, पेस्टीसाइड, बायोसाइड, कीट नाशक रसायन सब भूमिगत नालियों द्वारा नगर की समीपवर्ती नदियों, सरोवरों में प्रवाहित किये जाते हैं। नवजात शिशुओं और मरे हुए जानवरों के शव भी नदियों में बहाने की प्रथा है। परिणामतः नदियों, सरोवरों का जल जो पाइपों द्वारा नगर के घरों में पीने के लिए दिया जाता है वह प्रदूषित होता है। इस जल को पीनेवाले अनेक रोगो-आमाशय विकार, आन्तों के रोगों, चर्म रोगों से पीड़ित होते हैं। प्रदूषित जल जमीन के नीचे जाकर खेतों में उगायी जानेवाली अनाज की फसलों, वृक्षों में फसनेवाले फलों, क्यारियों में उत्त्पन्न सब्जीयों को विषाक्त और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बना देता है। जल को जीवन कहा गया है।
वायु प्रदूषण:
वायु के बिना हम एक क्षण भी नहीं जी सकते। प्राण वायु नाम से स्पष्ट है कि हमारे प्राणों के लिए वायु अनिवार्य है। नगरों में कलकारखानों से निकली गैसें, वाहनों के ईंधन जलने से निकलनेवाली गैसें सल्फ्यूरिक एसिड, सीसा आदि के तत्व वायु को प्रदूषित करते हैं – आक्सीजन की मात्रा कम तथा कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा अधिक हो जाती है। बिजलीघरों में जो कोयला जलता है, वह चिमनियों द्वारा राख, धुआँ विभिन्न प्रकार की विषैली गैसों के कारण ओजन परत में दरारें पड़ने लगी हैं। यदि वह किसी दिन फट गई तो सूर्य की किरणें आग की वर्षा करेंगी और उनसे प्रलय मच जाएगी। हरे-भरे वृक्ष आक्सीजन उत्पन्न करते हैं। अतः उनके वातावरण दूषित होने से बचता है, परन्तु बढती जनसंख्या के लिए आवास-गृह बनाने उन्हें काटा जा रहा है, कागज बनाने के लिए प्रकृति ने जो पदार्थ दिये हैं उनको विनष्ट कर हम अपने पैरों में कुल्हारी मार रहे हैं। वायु-प्रदुषण से न केवल हमारा स्वास्थ्य ही चौपट हो जाएगा, हम बीमार रहकर असमय ही काल कवालित हो जाएँगे अपितु इस पृथ्वी का अस्तित्व ही नष्ट हो जाएगा। वायु-प्रदुषण से बचने के लिए एक ओर औद्योगिकरण पर अंकुश लगाना होगा तथा दूसरी ओर वनों का संरक्षण करना होगा। वृक्षों की कटाई बंद करनी होगी, नये-नये पौधों लगाने होंगे, पृथ्वी को अधिक हरा-भरा बनाना पड़ेगा। पेड़, पौधों की ऊपरी शाखाएँ, पत्तियाँ सूर्य की किरणों के लिए धरती के भीतर की आर्द्रता या जलकणों का पोषण करने के लिए पान-नलिका का कार्य करती हैं और वर्षा के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। वृक्षों के कारण भू-क्षरण भी रुकता है, भूमि का कटाव भी कम होता है। वनों को काटने का दुष्प्रभाव मौसम, जलवायु और ऋतुओं पर भी पड़ता है। इसलिए पर्यावरण विशेषज्ञ वन-संरक्षण की आवश्यकता पर बल दे रहे हैं।
ध्वनी प्रदूषण: पर्यावरण संरक्षण या प्रदूषण की समस्या
जहाँ कोमल ध्वनियाँ – संगीत के स्वर, पक्षियों का कलरव, पत्तियों का मर्मर शब्द, नदी की धरा का कलकल संगीत, बादलों और सागर का हल्का गर्जन हमें प्रिय लगता है वहाँ बिजली का कड़कना, मेघों और सागर का कर्णभेदी गर्जन, भूकम्प के समय पृथ्वी की गड़गड़ाहट हमारे कानों के परदे फाड़कर हमें बेचैन बना देती है। नगरों में रहनेवाले इस ध्वनि-प्रदूषण से बेजार हैं – वाहनों की चिल्ल-पौ, रेल के पहियों की गड़गड़हट, कारखानों, मिलों के साइरनों की आवाज तो हमें चैन से काम करने में बाधक हैं। प्रातः संध्या के समय ही मन्दिरों, गुरुद्वारों, मस्जिदों से लाऊड-स्पीकरों द्वारा भजन- कीर्तन, सबह-पाठ, नमाज की अजान के स्वर मानसिक शान्ति प्रदान करने की जगह हमें आकुल-व्याकुल कर देते हैं। गलियों बाजारों में विवाह के अवसर पर या देवी-जागरण का परिणाम होता है रक्तचाप, बहरापन, तनाव, चिड़चिड़ा स्वभाव अनिद्रा आदि। राजनितिक दलों द्वारा चुनाव के समय नारेबाजी तथा मांगलिक अवसरों पर बजाये जानेवाले बैण्ड, बाजों, ढोल, शहनाई की चीख भी ध्वनी-प्रदूषण को जन्म देती है। अतः यदि इस समाप्त करना है तो इनके सम्बन्ध में कानून बनाना ही पर्याप्त न होगा, उनका कड़ाई से पालन करना-करना भी आवश्यक है।
सारांश यह कि पर्यावरण के संरक्षण के लिए इन सब प्रकार के प्रदूषणों को समाप्त करना होगा। इसके लिए एक ओर विज्ञान और प्रौद्योगिकी की सहायता से प्रदूषण कम करने के उपाय खोजने पड़ेंगे और दूसरी और वन-संरक्षण, नए पेड़-पौधे लगाने के लिए वन महोत्सव जैसे अनुष्ठान करने होंगे।
शुद्ध जल, शुद्ध वायु, शुद्ध भोजन मानव-सृष्टि के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हैं। अतः यदि मनुष्य जाती को जीवित रहना है तो उसे प्रदूषणमुक्त पर्यावरण बनाना होगा। ऐसा करने पर ही हम स्वस्थ और शान्तिपूर्ण जीवन बिता सकेंगे।