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दहेज़ की समस्या

दहेज़ की समस्या पर विद्यार्थियों और बच्चों के लिए हिंदी निबंध

भारतीय संस्कृति में विवाह आठ संस्कारों में से एक संस्कार माना जाता गया है। हमारे पूर्वज इसके महत्त्व को भली-भाँती समझते थे। विवाह मानव जाती के अस्तित्व को अक्षुण्ण रखता है क्योंकि पति-पत्नी के संसर्ग से उत्पन्न संतान ही मानव जाती को नष्ट होने से बचाती है। वह स्त्री-पुरुष को मर्यादा में रखता है, उनकी काम-वृत्ति पर अंकुश लगाकर उन्हें उच्छ्रिंखल आचरण करने से रोकता है, घर-गृहस्थी में सुख और चैन की वर्षा करता है। हिन्दू विवाह संस्कार-विधि में पाँच क्रियाएँ होती हैं-वाग्दान, कन्यादान, वरण, पाणिपीड़न और सप्तपदी। यहाँ कहीं भी दहेज़ का उल्लेख नहीं है।

सम्भव है विवाह के अवसर पर वर-वधू को आशीर्वाद देते समय वधू के माता-पिता, सम्बन्धी, मित्रगण उन्हें उपहार रूप में कुछ देते हों। आज भी कन्यादान के समय माता-पिता और सम्बन्धी उपहार देते हैं, वस्त्राभूषण के रूप या नकद रुपयों के रूप में। आगे चलकर सम्पन्न लोगों ने अपना ऐश्वर्य दिखाने के लिए पुत्री को विदा करते समय बहुमूल्य आभूषण तथा अन्य सामान दिये हों। पर यह सब स्वेच्छा से तथा आर्थिक स्थिति के अनुरूप दिया जाता था। उसके पीछे दबाव, सौदेबाजी का भाव न था। बीसवीं शदी के तीसरे-चौथे दशक तक विवाह के समय दहेज़ दिया अवश्य जाता था, परन्तु उसमें सामान्य वस्त्राभूषण ही होते थे।

भौतिकतावाद तथा उपभोक्ता संस्कृति के उदय के साथ इस कुप्रथा ने जन्म लिया है। अर्थप्रधान युग में विवाह भी अर्थार्जन का साधन बन गया। अब कन्या का सौन्दर्य, शील, प्रतिभा, कलाओं में प्रवीण होना, उसके गुण नहीं बल्कि दहेज की मात्रा ही विवाह के लिए कसौटी बन गई है। दूसरी ओर दहेज़ के लोभ में योग्य लड़कों के माता-पिता कुरूप, कुलक्षिणी कन्याओं को ढोल की तरह उनके गले में बांधने लगे। दहेज़ न दे पाने की स्थिति में माता-पिता को अपनी सुशील, सुन्दर, यौवन सम्पन्न कन्या का विवाह कुपात्रों, कन्या के पिता की आयु के बराबरवाले रोगी, कुरूप, दुर्बल शरीरवाले, व्यसनी पुरुषों से करना पड़ा। परिणाम होता था पति-पत्नी का विशेषतः पत्नी का जीवन नारकीय बन जाना क्योंकि पुरुषप्रधान समाज में नर को सब कुछ करने की स्वतंत्रता है।

नारकृत शास्त्रों के सब बन्धन
हैं नारी ही को लेकर
अपने लिए सभी सुविधाएँ
पहले ही कर बैठे नर।

कन्या के माता-पिता को दहेज़ देने के लिए अपना घर, खेत, आभूषण आदि बेचने या गिरवी रखने पड़ते हैं। धन के लालची वर, उसके माता-पिता, बहन सब कम दहेज़ लानेवाली कन्या को सताते हैं। दिन-रात कन्या तथा उसके माता-पिता को गालियाँ दी जाती हैं, व्यंग्य कसे जाते हैं, कटुक्तियों से उसके दिल को छल्ली किया किया जाता है। फिर मारना-पीटना शुरू होता है, शारीरिक और मानसिक कष्ट दिये जाते हैं। स्त्री का दुश्मन स्त्री हो जाती है। सास भूल जाती है कि कभी वह भी किसी की बेटी थी। क्वारी ननद भूल जाती है कि उसका विवाह होना है और उसके साथ भी दुर्व्यवहार हो सकता है। कभी उसे उसके मायके भेज दिया जाता है और अन्त में उसके शरीर पर तेल छिड़क कर उसे जला दिया जाता है। कभी ससुराल में मिलनेवाली प्रतारणा और यातना से नवयुवती, नवविवाहिता, सुकुमार कन्या आत्महत्या कर लेती है। कुछ ऐसी भी होती हैं जो घर छोड़ कर वेश्यावृति करने लगती हैं।

इसी कुप्रथा के कारण पति-पत्नी में झगड़े होते हैं। पढ़ी-लिखी लड़कियां तलाक ले लेती हैं और अर्थोपार्जन की क्षमता होने के कारण, आत्मनिर्भर होकर सुख से जीवन व्यतीत करती हैं।

वर का पिता पुत्र के विवाह के समय भूल जाता है कि उसे भी अपनी बेटी का विवाह करना है। कभी-कभी वह दहेज़ की माँग इसलिए भी करता है कि जो दहेज बेटे के विवाह में आयेगा उसे बेटी को देगा। इस प्रकार यह दुष्चक्र चलता ही रहता है। खरबूजे को देखकर खदबूजे का रंग बदलता है, यह बात दहेज़ माँगनेवालों पर पूरी घटती हैं। एक को देखकर दूसरा, पहले से भी अधिक दहेज़ की माँग करता है। जो जितना सम्पन्न होता है वह उतनी ही बड़ी रकम दहेज़ में माँगता है। मध्यवर्ग के लोगों की माँग से अधिक माँग होती है सम्पन्न परिवारों के लोगों की। वे इसे समाज में प्रतिष्ठा की बात मान लेते हैं और दहेज़ का प्रदर्शन करते हैं। इससे यह रोग और बढ़ता है।

सारांश यह कि दहेज़ प्रथा सामाजिक अभिशाप है, मानवजाति के मस्तक पर कलंक है और इसका कारण है उदात्त जीवन-मूल्यों का ह्रास, आदर्शवादिता का लोप, धन का लालच, झूठी प्रतिष्ठा की भावना, प्रदर्शनप्रियता। इस कुप्रथा को मिटाने के उपाय क्या हैं? कानून बनाने से पहले ही कानून बनाने से, भाषण देने क से इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता। कानून बनाने से पहले ही कानून तोड़ने की युक्ति निकल ली जाती है। भाषण देनेवाले राजनेता, समाजसेवी, सुधारक, मंत्री भाषण देते हैं दहेज प्रथा के विरोध में, पर जब समय आता है तो स्वयं अपने बेटों के विवाह में दहेज लेते और बेटी के विवाह में दहेज देते हैं। यदि इस कुप्रथा को मिटाना है तो युवक-युवतियों को ही आगे बढना होगा। लडकियाँ आत्म-निर्भर बनें, लोभी वर का पिता यदि दहेज़ की बात करे तो उसके बेटे से विवाह न करने का ऐलान स्वयं कर दें, विवाह के बाद दहेज की माँग हो तो ससुराल छोड़कर मायके चली जायें, तलाक के लिए अर्जी दें, पुलिस को सूचना दें और इन चांडालों को दंड दिलवायें। युवक अपने माता-पिता से स्पष्ट कह दें, कि वे दहेज लेकर विवाह नहीं करेंगे। दहेज़ की प्रथा को मिटाने का एक अन्य उपाय है प्रेम-विवाह। वर के माता-पिता को बिना दहेज़ लिए पुत्र के निर्णय के सम्मुख झुकना पड़ेगा। अतः युवक-युवतियों में दहेज़-विरोधी मानसिकता पैदा कर के ही इस दानव का संहार किया जा सकता है।

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