सिक्खों के दसवें धार्मिक गुरु तथा खालसा के संस्थापक गुरु गोविंद सिंह एक महान तेजस्वी और शूरवीर नेता थे। सन् 1699 में बैशाखी के दिन उन्होने खालसा पन्थ की स्थापना की, जो सिक्खों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। विचित्र नाटक को उनकी आत्मकथा माना जाता है।
यही उनके जीवन के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह दसम ग्रन्थ का एक भाग है। दसम ग्रन्थ, गुरू गोविंद सिंह की कृतियों के संकलन का नाम है। गुरू गोविंद सिंह ने सिखों के पवित्र ग्रन्थ गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया तथा उन्हें गुरु रूप में सुशोभित किया।
गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म सन् 5 जनवरी 1666 (विक्रम संवत 1727) को बिहार के पाटलिपुत्र (पटना) में हुआ था। इनके पिता जी का नाम गुरु तेगबहादुर सिंह था, जो सिखों के नवें गुरु थे तथा इनकी माता जी का नाम गुजरी था। गुरु गोविन्द सिंह के जन्म के समय उनके पिता असम में धर्म उपदेश के लिए गय थे। मार्च सन् 1672 में गुरु गोविंद सिंह का परिवार आनंदपुर में आया, यहाँ उन्होंने अपनी शिक्षा ली।
जिसमें उन्होंने पंजाबी, संस्कृत और फारसी की शिक्षा प्राप्त की। 11 नवंबर सन् 1675 को कश्मीरी पंडितों को जबरन मुस्लिम धर्म अपनाने के विरुद्ध शिकायत करने पर औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चौक पर गुरु तेगबहादुर सिंह का सर कटवा दिया। अपने पिता की मृत्यु के पश्चात 29 मार्च सन् 1676 को बैशाखी के दिन गुरु गोविंद सिंह को सिख धर्म का दसवां गुरु बनाया गया।
मात्र नौ वर्ष की अल्प आयु में ही वे एक वीर योद्धा बन चुके थे। अपने पिता गुरु तेगबहादुर के बलिदान ने उनके अन्दर अत्याचारों से लड़ने और उसका डटकर मुकाबला करने की असीम शक्ति भर दी थी। उन्होने मुगलों, शिवालिक तथा पहाडियों के राजा के साथ 14 युद्ध लड़े। गुरु गोविंद सिंह ने धर्म के लिए अपने समस्त परिवार का बलिदान कर दिया, जिसके लिए उन्हें ‘सर्वस्वदानी’भी कहा जाता है।
गुरु गोविंद सिंह एक महान लेखक, फ़ारसी तथा संस्कृत सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में 52 कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें ‘संत सिपाही’ भी कहा जाता था। गुरु गोविन्द सिंह जी प्रतिदिन आनंदपुर साहब में आध्यात्मिक आनंद बाँटते थे। वो मानव मात्र में नैतिकता, निडरता तथा आध्यात्मिक जागृति का संदेश दिया करते थे। यहाँ पर समता का अद्भुत ज्ञान प्राप्त करते थे। गोविन्द जी शांति, क्षमा, सहनशीलता की मूर्ति थे।
मात्र 10 साल की उम्र में ही गुरु गोविंद सिंह ने 21 जून सन् 1677 में अपना पहला विवाह ‘माता जीतो’ के साथ किया। माता जीतो आनंदपुर के करीब 10 किलोमीटर दूर बसंतगढ़ की रहने वाली थी। गुरु गोविंद सिंह को तीन पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई:
- जुझार सिंह
- जोरावर सिंह
- फतेह सिंह
गुरु गोविंद सिंह ने सन् 1684 में चंडी की दीवार की रचना की तथा 1 साल तक यमुना नदी के किनारे बसे पाओंटा नामक स्थान पर रहे। 4 अप्रैल सन् 1684 में उन्होंने अपना दूसरा विवाह माता सुंदरी के साथ किया, जिनसे उन्हें एक पुत्र, अजीत सिंह की प्राप्ति हुई। सन् 1687 में नादौन के युद्ध में, गुरु गोविंद सिंह, भीम चन्द्र और अन्य पड़ोसी देशों के पहाड़ी राजाओं की सेनाओं ने अलिफ़ खान और उनकी सेनाओं और उनका साथ देने वाली अन्य सेनाओं को बुरी तरह हरा दिया था। बिलासपुर की रानी, रानी चंपा ने भंगानी के युद्ध के बाद गुरु गोविंद सिंह को आनंदपुर साहिब में आने का अनुरोध भेजा जिसे स्वीकार कर गुरु जी सन् 1688 में आनंदपुर साहिब वापस आ गये।
गुरु गोविंद सिंह ने सन् 1699 में खालसा पंथ की स्थापना की थी। इस पंथ का आशा है कि सिख धर्म के विधिवत शिक्षा प्राप्त अनुयायियों का एक समूह। इन्होंने एक बार एक सिख समुदाय में आए सभी लोगों से पूछा कि, कौन-कौन अपने सर का बलिदान देना चाहता है ? तभी उन लोगों के बीच बैठे एक आदमी ने अपना हाथ ऊपर किया। गुरु गोविंद सिंह ने उसे अपने साथ एक तंबू के अंदर ले गए।
थोड़ी देर बाद गुरु जी अकेले निकले और उनके हाथ में एक खून लगी तलवार थी। गुरु गोविंद सिंह जी ने वही प्रश्न फिर से दोहराया और फिर एक व्यक्ति राजी हो गया। उन्होंने उसे भी तंबू में ले गए और थोड़ी समय बाद अपनी खूनी तलवार हाथ में लिए निकले। इसी प्रकार उन्होंने लगातार पांचवा व्यक्ति भी तंबू के अंदर ले गए और थोड़ी समय बाद वे सब जीवित बाहर आ गया, तभी वहां मौजूद लोगों ने उन्हें पंच प्यारे या खालसा नाम दे दिया।
इसके पश्चात उन्होंने एक लोहे का कटोरा मे पानी और चीनी लेकर दोधारी तलवार से मिलाया और उसे अमृत नाम दिया। खालसा पंथ की पंच प्यारों ने पांच चीजों केश, कंघा, कडा, किरपान, क्च्चेरा का महत्व समझाया। 15 अप्रैल सन् 1700 को 33 वर्ष की आयु में उन्होंने माता साहिब देवन से विवाह किया। तीसरी शादी से उन्हें कोई सन्तान नहीं प्राप्त हुई, मगर उनका दौर बहुत प्रभावशाली था। 8 मई सन् 1705 को मुख़्तसर नामक स्थान पर गुरु गोविंद सिंह और मुगलों के बीच एक भयानक युद्ध हुआ जिसमें गुरु गोविंद सिंह की जीत हुई।
औरंगजेब की मौत के बाद गुरु गोविंद सिंह ने बहादुरशाह को बादशाह बनने में मदद की, जिससे उन दोनों के बीच का संबंध अच्छा होने लगा। उनके बढ़ते संबंधों को देखकर सरहद के नवाब वजीत खान घबरा गया और उसने गुरु गोविंद सिंह को मारने के लिए दो पठानों को भेज दिया। जिन्होंने मिलकर गुरु गोविंद सिंह का 18 अक्टूबर 1708 में नांदेड में हत्या कर दी। उन्होंने अपनी अंतिम सांस लेते हुए सिखों से यह अनुरोध किया कि वे गुरु ग्रंथ साहिब को ही अपना गुरु माने।
कट्टर आर्य समाजी लाला दौलत राय, गुरु गोविंद सिंह के बारे में लिखते हैं कि:
“मैं चाहता तो स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, परमहंस आदि के बारे में लिख सकता था, लेकिन में उनके बारे में नहीं लिखूँगा क्योंकि वे पूर्ण पुरुष नहीं हैं। मुझे सभी गुण गुरु गोविंद सिंह जी में मिलते हैं।
उन्होंने गुरु गोविंद सिंह के व्यक्तित्व के बारे में पूर्ण पुरुष नामक एक पुस्तक भी लिखी है।
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