अश्व की उत्पत्ति भी समुद्र मंथन से स्वीकार की जाती है। पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन से जो चौदह रत्न निकले थे। उन में अश्व भी था। घोड़ों का युद्ध में खूब प्रयोग होता रहा है और आज भी होता है। राजा-महाराजाओं के साथ अश्वों की कथाएं गुथी हैं। महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक और रानी लक्ष्मीबाई के घोड़े की वीरता का इतिहास में उल्लेख मिलता है।
अश्व की अनेक प्रजातियाँ हैं। ‘अरबी घोड़ा’ बहुत बढ़िया समझा जाता है। अश्व अनेक रंग के होते हैं। इन्हें उपयोगी बनाने के लिए चाबुक मार-मार कर प्रशिक्षित किया जाता है। वश में रखने के लिए लगाम लगाई जाती है। घोड़े पर सवार होने से पहले काठी रखी जाती है और जीन भली प्रकार कसी जाती है। जिसमें पैर रखकर व्यक्ति घोड़े पर सवार होता है। घोड़े दौड़ और कूद में करतब दिखाते हैं।
घोड़े का मुख्य भोजन घास और चना है। रेत में लेटने से घोड़े की थकावट दूर होती है। घोड़े को प्रतिदिन घुमाना-फिराना आवश्यक है। आज कल पुलिस और सेना के पास उत्तम प्रकार के घोड़े होते हैं। सामान्य व्यक्ति अब घोड़े नहीं रखते। अब सवारी के लिए स्कूटर, मोटर साइकिल और कारों का प्रयोग किया जाता है। वैसे भी घोड़ी का मूल्य बहुत अधिक है। इसलिए अब बहुत सम्पन्न व्यक्ति ही घोड़े रख पाते हैं।
जिन घोड़ों को तांगों में जोता जाता है, उनके पैरों में नाल ठोक दी जाती है। इससे सड़क पर चलने से घोड़े के खुर खराब नहीं होते पैर सुरक्षित रहते हैं। टट्टू भी घोड़े की ही प्रजाति है। दुर्गम पर्वतीय स्थानों पर सामान और सवारियों को लाने ले जाने में ये बड़े उपयोगी सिद्ध होते हैं।
घोड़े का भारतीय संस्कृति में महत्वपूर्ण स्थान है। विवाहोत्सव और धार्मिक जलूसों में सजे-धजे घोड़ों को देखकर उत्साह का संचार हो जाता है। गुरू गोविन्द सिंह जयंती, महाराणा प्रताप जयंती और रामनवमी के अवसर पर सुसज्जित अश्व भारतीय जनमानस में प्राचीन गौरव को जागृत कर वीरत्व को उत्पन्न करते हैं।