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रक्षाबन्धन

रक्षाबंधन पर हिंदी निबंध विद्यार्थियों के लिए

रक्षाबंधन पर हिंदी निबंध [2]

रक्षाबन्धन सांस्कृतिक त्यौहार था परन्तु अब वह मात्र पारिवारिक त्यौहार होकर रह गया है। प्राचीन काल में ऋषियों के आश्रम में धार्मिक अनुष्ठान के रूप में मनाया जाता था। यज्ञ के उपरांत कलाई में रक्षा-सूत्र बाँधने की प्रथा थी, उसे रक्षा-कवच माना जाता था जो विघ्नों, आपदाओं से रक्षा करता हो। श्रावण मास में यज्ञ की पूर्णाहुति के बाद श्रावण पूर्णिमा के दिन रक्षा-सूत्र बाँधा जाता था। गुरुकुलों में शिक्षा का नया सत्र आरम्भ होने पर गुरु अपने शिष्यों को आशीर्वाद में रक्षा-सूत्र देते थे। अतः इस पर्व का नाम रक्षाबन्धन रखा गया। पूराण-कथाओं में उल्लेख है कि देवासुर संग्राम में जब असुरों का पलड़ा भारी होता दिखाई दिया और देवगण चिन्तित हो उठे तो देवराज की पत्नी शची ने अपने पति की मंगलकामना तथा विजय के लिए रक्षा-सूत्र बाँधा था और उसके प्रभाव से देवताओं की विजय हुई थी। तभी से संकट के समय रक्षाबन्धन की परम्परा चल पड़ी। बाद में लकीर के फकीर ब्राह्मणों ने इसे आय का साधन बना लिया। श्रावण पूर्णिमा के दिन ब्राह्मण राखियाँ लेकर घर से निकल पड़ते और अपने-अपने यजमानों की कलाई में रक्षा-सूत्र बाँधते और बदले में यजमान उन्हें कुछ दान-दक्षिणा देते थे। मुझे अपने बचपन की स्पष्ट स्मृति है की हमारे कुटुम्ब के मुखिया चौपाल में गावतकिये के सहारे लेटे रहते थे, कस्बे के अनेक ब्राह्मण चौपाल पहुँचकर उनके हाथ में और उनसे भी ज्यादा वहाँ एकत्र कुटुम्ब के बच्चों की कलियों में रंगीन धागा बाँधते थे। न वे मंगल कामना करते थे, न कोई मंत्र पढ़ते थे; बस धागा बाँधकर पैसे बटोर क्र चल देते थे।

मध्यकाल में विशेषतः यवनों के राजपूतों के साथ युद्ध के समय रक्षाबन्धन की प्रथा में कुछ परिवर्तन आया। राजपूत रमणियाँ युद्ध में जानेवाले अपने पतियों, भाइयों, पुत्रों के माथे पर तिलक लगाने के बाद उनकी कलाई में रक्षा-सूत्र बाँधकर विजय की कामना करती थीं। उनकी विजय ही आतातायी, विलासी और कामुक यवन सैनिकों की कामुकता भरी दृष्टि से राजपूत स्त्रियों के सतीत्व की, मान-मर्यादा की रक्षा थी। अतः रक्षाबन्धन नाम सार्थक था। रक्षा-सूत्र रक्षा-कवच का काम करता था।

रक्षा-सूत्र की प्रथा प्रायः हिन्दुओं के बीच ही थी; आज भी रक्षाबन्धन का त्यौहार मुख्यतः हिन्दू परिवारों में ही मनाया जाता था। इतिहास में एक प्रसंग अवश्य ऐसा मिलता है जब हिन्दू रानी ने मुगल बादशाह हुमायूँ को राखी भेजकर उससे सहायता माँगी थी, अपने और अपने देश की रक्षा के लिए विजातीय सम्राट को निमंत्रण भेजा था। चित्तौड़ के महाराणा संग्राम सिंह की मृत्यु के बाद जब सुल्तान बहादुर शाह ने चित्तौड़गढ़ को चारों ओर से घेर लिया और पराजय दिखाई देने लगी तो महारानी कर्मवती ने सहायता के लिए हुमायूँ के पास राखी भेजी थी। राखी की पवित्रता और उसका महत्त्व समझ कर उस उदार हृदय शहंशाह ने शेरशाह सूरी के आक्रमण की आशंका होते हुए भी चित्तौड़ जाकर रानी कर्मवती की रक्षा करने के लिए अपनी सेना सहित चित्तौड़ की और कुंच किया। उन्हें पहुँचने में विलम्ब हुआ और रानी की अन्य स्त्रियों के साथ जौहर करना पड़ा। पर बाद में हुमायूँ ने बहादुरशाह को पराजित कर रानी के पुत्र उदयसिंह को सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर राखी की लाज रखी। यह ऐतिहासिक घटना रक्षाबन्धन की पवित्रता को रेखांकित करती है।

भाई-बहन के बीच रक्षा-सूत्र या राखी बाँधने की प्रथा कब, कैसे और कहाँ शुरू हुई इसका कोई प्रामाणिक सबूत नहीं मिलता, पर इसे पवित्र पर्व मानकर इसे मनाने की परम्परा अत्यंत प्राचीन है।

आज के भौतिकवादी, उपभोक्ता संस्कृति के युग में यह पावन पर्व भी अपनी सात्विकता, पवित्रता, सच्चे स्नेह की भावना खो चुका है। रक्षाबन्धन से कई दिन पहले ही बाजारों में दूकानों पर रंग-बिरंगी, नये डिजाइन की, सस्ती और महँगी राखियाँ बिकने लगती हैं; हलवाइयों की दूकानों पर तरह-तरह के आकर्षक डिब्बों में मिठाइयाँ सजी दिखने लगती हैं। इन्हें खरीदने के लिए युवतियों, किशोरियों यहाँ तक कि वयस्क स्त्रियों की भीड़ उमड़ पड़ती है। रक्षाबन्धन के दिन बहनें अपने पतियों और बच्चों के साथ मात्रीगृह में जाकर भाई-भतीजों की कलाईयों में राखी बाँधती हैं, उनके माथे पर तिलक लगती हैं, उनका मुँह मीठा करती हैं और बदले में भाई बहन को उपहार, मुख्यतः कुछ नोट देता है। अब रक्षा का भाव समाप्त हो गया है। ससुराल में जाने के बाद स्त्री का अपना घर होता है, पति-बच्चे होते हैं वे ही उनकी रक्षा के लिए उत्तरदायी हैं। भाई अपनी गृहस्थी में फँसा रहता है। अतः आज इस पर्व पर राखी बाँधने की परम्परा केवल औपचारिकता मात्र रह गई है। स्नेह नहीं धान का महत्त्व है। बहन स्वयं राखी बाँधने के बाद थाली में पड़े नोटों को गिनने के लिए उत्सुक रहती है और उसके घर वाले पूछते हैं कि आज कितनी कमाई हो गई। यह त्यौहार भी हैसियत, स्टेटस मापने का एक अवसर बन गया है। अब यह पर्व भाई-बहन के बीच आत्मीयता का, एक-दूसरे की सहायता का, पवित्र स्नेह का पर्व नहीं रह गया है। इस पर्व पर केवल औपचारिकता निभाई जाती है, लकीर पीटी जाती है। यह एक चिन्ता का विषय है और इस दूषित मानसिकता को त्यागने में ही कल्याण है।

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