Saturday , November 2 2024
डॉक्टर पर निबंध Hindi Essay on Doctor

यदि मैं डॉक्टर होता: विद्यार्थियों के लिए हिंदी निबंध

कुछ वर्ष पहले की बात है एक भयानक संक्रामक रोग ने मुझे आ दबोचा और मुझे पास के सरकारी अस्पताल में दाखिल करा दिया गया। मुझे वहाँ लगभग पन्द्रह दिन रहना पड़ा। पहला सप्ताह मेरे और मेरे घरवालों के लिए बड़ी चिन्ता, क्लेश और कष्ट का रहा। कभी लगता मैं शीघ्र ही स्वस्थ हो जाऊंगा पर कभी-कभी मुझे लगता कि मैं केवल चन्द घड़ियों का मेहमान हूँ और मेरी हालत देख मेरे घरवाले भी घबरा जाते। दुसरे सप्ताह मेरी दशा सुधरती गयी और एक दिन डाक्टरों ने मेरे घरवालों से कहा कि कल इन्हें अस्पताल से छुट्टी दे दी जाएगी, आप प्रातः आठ-नौ बजे इन्हें घर ले जा सकते हैं। उस रात पता नहीं नींद क्यों कम आयी और अधिक समय तक विचार-चक्र घूमता रहा। कभी सोचता इस जानलेवा बीमारी से छुटकारा पाने का विधि का विधान है ‘हानी-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ’ तो कभी सोचता मेरे स्वस्थ होने का श्रेय अस्पताल के डाक्टरों, नर्सों और नई-नई औषधियों को है। इसी क्रम में कभी सोचता भाग्य प्रबल है तो कभी सोचता कर्म प्रधान है ‘कर्म प्रधान विश्व रची राखा’। बीच में आँख लग गयी। जब आँख खुली तो मैं अस्पताल के अनुभवों विशेषतः डाक्टरों के स्वभाव, रोगियों के प्रति उनके व्यवहार और अस्पताल की व्यवस्था के विषय में विचार करने लगा। इतना तो मैं जनता ही था कि डाक्टरी का पेशा पवित्र व्यवसाय है, जन-सेवा का कार्य है और लोग डाक्टर को देवता या ईश्वर का प्रतिरूप मानकर उनका सम्मान करते हैं। जो डाक्टर जितना अधिक हंसमुख, विनोदप्रिय, रोगियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण और संवेदनशील होता है वह उतना ही लोकप्रिय होता है, लोग उसे देवता मानकर उसकी पूजा करते हैं। इन्हीं विचरों में डूबा मैं कल्पना के पंखों पर उड़ने लगा और सोचने लगा कि यदि मैं डाक्टर होता तो क्या करता। वही काल्पनिक चित्र आपके सामने प्रस्तुत क्र रहा हूँ।

मेरे अवचेतन मन के किसी कोने में यह बात समायी हुई थी कि दूर-दराज के देहातों में जीवन की सामान्य सुविधाएँ न होने के कारण पर्याप्त धन खर्च करने के बाद एम.बी.बी.एस. की डिग्री प्राप्त करनेवाले, नागरिक जीवन की सुख- सुविधाओं के अभ्यस्त डाक्टर गाँवों में नहीं जाना चाहते। अतः इन पिछड़े क्षेत्रों में चिकित्सा के साधनों का अभाव है, रोगग्रस्त होकर बहुत से गाँववाले अकाल मृतु के ग्रास बनते हैं। दुसरे, देहातों में रहनेवाले निम-हकीम, झाड़-फूँक करनेवाले, ओझा अनपढ़-अशिक्षित-अन्धविश्वासी भोले लोगों को उल्लू बनाकर अपनी जेबें भरते हैं। कोई बच जाता है तो अपनी हिकमत का डंका पिटते हैं और यदि मर जाता है तो उसके लिए भगवान या भाग्य को दोष देते है। अवचेतन मन में पैठी हुई इस बात का प्रभाव यह पड़ा कि मैंने कल्पना में देखा कि मैंने एक पिछड़े गाँव में रेणु के उपन्यास “मैला आँचल” के डॉ. प्रशान्त की तरह अपना क्लीनिक खोला है। उसका फर्नीचर सामान्य पर रोगियों के लिए सुखदायक है। स्वागत-कक्ष में एक नर्स बैठी है। वह रोगियों को बारी-बारी से जाने के लिए नम्बर लिखी पर्ची देती है। उसके ओठों पर खेलती मधुर मुस्कान तथा मृदु वाणी से रोगी का चित प्रफुल्ल हो उठता है क्योंकि उन्हें यहाँ फीकी या टेढ़ी भौंहें देखने को नहीं मिलतीं।

पर्ची लेकर जब रोगी मेरे कक्ष में प्रवेश करता है तो मैं भी मुस्कराकर उसका स्वागत करता हूँ, उसके सामने पड़ी कुर्सी पर बैठने को कहता हूँ, उसे अपना रोग बताने के लिए कहता हूँ, आवश्यकता हुई तो उसकी केस-हिस्ट्री लिख देता हूँ। उसकी हर बात ध्यान से सुनता हूँ, उसकी नाड़ी देखकर आवश्यकता के अनुसार फेफड़े या हृदय का परीक्षण कर, थर्मामीटर से उसके शरीर का तापमान मापकर या रक्तचाप देखकर उसे दवाई का पर्चा देता हूँ। उसे क्या-क्या सावधानी बरतनी है, किन बातों से बचना है आदि हिदायतें देता हूँ। इस पर भी यदि वह कोई प्रश्न करता है तो उसका उत्तर देता हूँ। यदि वह बातूनी हुआ या बेकार के प्रश्न दुहराता है तो कठोर स्वर में उसे चले जाने के लिए कह देता हूँ।

यदि कोई रोगी इतना अस्वस्थ हो जाता है कि मेरे क्लीनिक में नहीं आ सकता तो मैं उसके घर जाकर रोगी का परीक्षण उसी तरह करता हूँ जिस प्रकार क्लीनिक में आये रोगी का। मेरा दृष्टिकोण धन कमाने का नहीं बल्कि सेवा करने का है। अतः मैं रोगी को आत्मविश्वास में लेकर उसे रोग की सही स्थिति बता देता हूँ, कुछ छिपाता भी नहीं और न बीमारी को बढ़ा-चढ़ा कर उसे भयभीत या आतंकित करता हूँ। आज डाक्टर कभी तो अनुभवहीन होने के कारण, तो कभी कमाई के लिए तरह-तरह के परीक्षण-रक्त, पेशाब, मल, थूक आदि का परीक्षण करवाने का आदेश देते हैं तो अनावश्यक होते हुए भी तथाकथित विशेषज्ञों के पास जाकर उनसे परामर्श लेने, उनका इलाज करने की सलाह देते हैं क्योंकि इन विषेशज्ञों से उनका कमीशन बंधा होता है। मैं ऐसा कभी नहीं करूँगा क्योंकि यह छल है, कपट है, बेईमानी है और इस पवित्र पेशे को कलंकित करती है। मैं अनिवार्य स्थिति में ही परीक्षण करवाने की सलाह दूंगा और किसी दुसरे सचमुच विषेशज्ञ के पास जाने का परामर्श दूँगा।

फ़ीस तो मैं लूँगा क्योंकि मुझे बाप-दादा से कोई जायदाद या धन-राशि नहीं मिली है परन्तु मेरी फ़ीस इतनी होगी जितनी सामान्य जन दे सकता है। यदि कोई उतनी भी फीस नहीं डे सकता तो मैं उसका निःशुल्क इलाज कर दूंगा और यदि संभव हुआ तो उसके लिए औषधियाँ भी उपलब्ध करा दूँगा।

सारांश यह कि मैं डाक्टरी के पेशे को जन-सेवा का पवित्र कार्य समझ क्र पूरी निष्ठा एवं परोपकार की भावना से इस कार्य को पूरा करूँगा। मधुर वाणी, सद्व्यवहार, सहानुभूति, संवेदनशीलता इस सेवा-कार्य के अभिन्न अंग होंगे।

Check Also

दशहरा पर 10 लाइन: विजयादशमी के त्यौहार पर दस पंक्तियां

दशहरा पर 10 लाइन: विजयादशमी के त्यौहार पर दस पंक्तियां

दशहरा पर 10 लाइन: दशहरा भगवान राम की रावण पर विजय का उत्सव है, जो …