जब भारत स्वतंत्र हुआ उस समय विश्व की दो महान शक्तियों में प्रतिस्पर्धा का युग था; विश्व की इन दो महान शक्तियों ने दो गुट, दो शिविर बना लिए थे-एंग्लो-अमेरिकन गुट तथा साम्यवादी गुट। दोनों की राजनितिक सोच और अर्थ नीतियाँ परस्पर विरोधी थीं। अमेरिका संविधान की दृष्टि से भले ही जनतंत्र हो, प्रजातांत्रिक देशों की तरह वहाँ चुनाव होते हों, शासन की बागडोर कभी डैमोक्रैट तथा कभी रिपब्लिकन पार्टी के हाथ में रहती हो, पर वहाँ की राष्ट्रपति-व्यवस्था ऐसी है कि एक बार चुने जाने के बाद वह पाँच वर्ष तक तानाशाह की तरह कार्य करता है। वहाँ पूँजीवाद तो है ही। दूसरी ओर रूस में तानाशाही थी। वहाँ एक ही राजनितिक दल था,विपक्ष था ही नहीं। वह पूँजीवाद घोर विरोधी रहा है, समाजवाद और राष्ट्रीयकरण की नीति अपनाये हुए है, वहाँ व्यक्ति नहीं राज्य ही सब कुछ है। इस प्रकार ये दोनों दो ध्रुवों पर बैठे थे और चाहते थे कि विश्व के अन्य राष्ट्र उनके शिविर के सदस्य बन जायें, उनकी राजनितिक विचारधारा तथा आर्थिक नीतियों को अपनायें। अतः इन दोनों ने भारत को भी अपने शिविर का सदस्य बनाने के लिए जी-तोड़ प्रयास किये। स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री का लक्ष्य था देश को शीघ्र से शीघ्र तथा अधिक से अधिक शक्तिशाली बनाना, उसका चहुमुखी विकास करना तथा विश्व में शांति स्थापित करना। अतः भारत किसी गुट का सदस्य नहीं बना; उसने अमेरिका तथा रूस दोनों से आर्थिक, तकनीकी सहायता पाने के लिए तटस्थ रहना बेहतर समझा और साम्राज्यवाद-उपनिवेशवाद द्वारा सताये गये देशों का पक्ष लिया। अमेरिका को भारत की यह नीति पसन्द न आयी।
आरम्भ में उसने पी.एल 480 के अन्तर्गत भारत को अनाज बेचा, पर यह अनाज उसका बचा-खुचा, अनाज के भंडारों में सड़ रहा अनाज था। अर्थात् इस सहायता के पीछे परमार्थ, सेवा, उदारता के भाव न होकर स्वार्थ था; वह भारत को खाद्यान्न के क्षेत्र में परावलम्बी बनाना चाहता था ताकि भारत उसका मुँहताज बना रहे, उसके आदेशों पर चलने के लिए विवश हो। भारत-अमेरिका के बीच आत्मीयपूर्ण सम्बन्ध न हो पाने के निम्नलिखित कारण हैं:
- अमेरिका की मानसिकता – निश्चय ही वह विश्व का सबसे शक्तिशाली राष्ट्र है – सम्पन्नता, समृद्धि, आर्थिक विकास, औद्योगीकरण की दृष्टि से भी और सैन्य शक्ति की दृष्टि से भी। इस स्थिति में विश्व का स्वामी बनने, संसार के अन्य राष्ट्रों अपने रौब में रखने, उन्हें अपने आदेश पर चलने के लिए विवश करने की मनोवृत्ति, अपना वर्चस्व स्थापित करने की लालसा स्वाभाविक ही है। उधर भारत स्वाभिमानी देश है, सदा अत्याचार, शोषण, दादागिरी का विरोध करता रहा है। अतः उसने प्रत्येक मुद्दे पर गुण-दोष के आधार पर निर्णय लिया, किसी के दबाव में आकर समर्थन या विरोध नहीं किया। आज भी ईराक के मामले में उसने यही नीति अपनायी है। राष्टपति बुश के लाख आग्रह करने तथा लल्लो-चप्पो करने के बावजूद भारत ने अपनी सेना ईराक न भेजने का निर्णय किया और संयुक्त राष्ट्र संघ को दुर्बल बनाने के स्थान पर उसे पुनः उसका पुराना गौरव एवं प्रतिष्ठा प्रदान करने की बात पर बल दिया। इस प्रकार की नीतियों और आचरण से अमेरिका का बौखला उठना स्वाभाविक ही है।
- पाकिस्तान बनने तथा भारत-पाकिस्तान के बीच संघर्ष आरम्भ होने के दिन से ही अमेरिका अन्यायी पाकिस्तान का समर्थन, पक्षपात करता रहा है क्योंकि एक तो पाकिस्तान जो आर्थिक, सैनिक सहायता का मुँहताज है सदा से अमेरिका के दबाव में आकर उसकी बात मानता रहा है और दूसरे उसने अमेरिका के परम शत्रु और प्रतिद्वन्दी रूस का, उसकी नीतियों, अफगानिस्तान पर उसके आधिपत्य का विरोध किया। हाल ही में उसने अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सैन्टर पर आक्रमण कर उसे ध्वस्त करनेवाले अल कायदा संगठन के विरूद्ध भी अमेरिका की सहायता की। अमेरिका ने पाकिस्तान को इस समर्थन की नीति के बदले में आर्थिक और सैन्य सहायता दी, भारत के विरोध की तनिक भी चिन्ता नहीं की। अमेरिका द्वारा दी गयी सहायता से शक्तिशाली बने पाकिस्तान से भारत का भयभीत होना स्वाभाविक था; उसने अमेरिका के इस आचरण को शत्रुता माना और दोनों के बीच सम्बन्धों में तनाव बढ़ा।
- अमेरिका भले ही जनतंत्र हो, पर वह अन्दर ही अन्दर साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी मनोवृत्ति का है। यह सच है कि आज दूसरों की भूमि पर आधिकार कर साम्राज्य या उपनिवेश स्थापित करना सम्भव नहीं है, परन्तु अपनी सैन्य शक्ति तथा आर्थिक सम्पन्नता के बल पर दूसरे देशों का अपना अनुचर बनाना सम्भव है। अमेरिका यही कर रहा है। भारत इस मनोवृत्ति का विरोध करता रहा है। अतः दोनों के सम्बन्ध सामान्य नहीं बन पाते।
- अमेरिका ने अपनी शक्ति के मद में सदा भारत-विरोधी कार्य किये हैं। 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्धों के समय उसने पाकिस्तान का पक्ष ही नहीं लिया, उसे सैनिक सहायता भी प्रदान की। 1971 के युद्ध में अपने सैनिकों की सुरक्षा का बहाना कर उसने अपना अणु-अस्त्रों से सज्जित सातवाँ जहाजी बेड़ा बंगाल की खाड़ी में भेजा था ताकि आवश्यकता पड़ने पर पाकिस्तानी सेना की सहायता की जा सके। वह भारत पर तरह-तरह के दबाव डालता रहा है, धमकियाँ देता रहा है। उसने कई बार आग्रह किया है कि भारत परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर कर दे, मिसाइल न बनाये। उसने रूस पर भी दबाव डाला कि वह भारत को क्रायोजनिक इंजिन न दे। प्रैसलर कानून, गैट समझौता, व्यापार के क्षेत्र में भारत का विशेष दर्जा समाप्त करना, औषधियों और वीजा-नियंत्रण, कापीराइट, पेटेन्ट जैसी नीतियाँ अपनाकर उसने भारत पर दबाव डालने की चेष्टाएँ की हैं।
मैत्री बराबरवालों में होती है। अमेरिका की तुलना में भारत बहुत दुर्बल है, वह न आर्थिक दृष्टि से समृद्ध है न सैनिक दृष्टि से आत्मनिर्भर। इसी कारण वह दृढ़ता से कोई कदम नहीं उठा पाता। दृढ रुख अपनाने के बाद कुछ समय में ही ढुलमुल पड़ जाता है। उधर अमेरिका को अपनी शक्ति-समृद्धि का घमंड है, अतः वह भारत को दिन-हीन, दुर्बल समझ कर उसकी उपेक्षा करता है। यही कारण है कि भारत-अमेरिका के सम्बन्ध सच्ची आत्मीयता से पूर्ण नहीं हैं; ऊपरी मन के हैं, अवसरवादिता से परिचालित हैं; दिखावे के हैं।