यातायात के साधनों और संचार-सुविधाओं के परिणामस्वरूप अब विश्व के विभिन्न देशों और राष्ट्रों के बीच की दूरियाँ बहुत कम हो गयी हैं। राजनितिक, औद्योगिक, आर्थिक आदि कारणों से भी विभिन्न देशों का एक दूसरे के निकट आना, परस्पर सहयोग के मार्ग पर चलना आवश्यक हो गया है। प्रत्येक स्वतंत्र देश को विदेशों से सम्बन्ध बनाये रखने के लिए कुछ सिद्धान्त, कुछ नीतियाँ, कुछ आदर्श, कुछ नियम बनाने पड़ते हैं। इन्हीं का समुच्चय विदेश नीति कहलाता है। हमारा देश भारत एक स्वतंत्र देश है। अतः उसने अन्य स्वतंत्र, स्वायत्त देशों के साथ अपने राजनितिक, कुटनीतिक सम्बन्ध बनाये रखने के लिए इन देशों में अपने दूतावास स्थापित किये हैं ताकि उनसे निरन्तर सम्बन्ध बना रहे। देश का विदेश मंत्रालय इन दूतावासों को दिशा-निर्देश करता रहता है। ये दिशा-निर्देश देश की सुरक्षा, देश के हितों को ध्यान में रखकर दिये जाते हैं।
जब 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ तो विश्व दो शिविरों में बंटा हुआ था – एंग्लो-अमेरिकन गुट तथा सोवियत संघ गुट। अमेरिका और रूस विश्व की दो महानतम शक्तियाँ थी। दोनों शिविर चाहते थे कि भारत उनके शिविर में शामिल हो जाये। पं. जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री होने के साथ-साथ विदेश मंत्रालय के भी अधिपति थे। विश्व शांति के देवदूत के रूप में प्रतिष्ठा पाना उनका सपना था; साथ ही सच्चे देशभक्त होने के नाते राष्ट्र का हित उनके लिए सर्वोपरि था। अतः उन्होंने पर्याप्त सोच-विचार, दूरदृष्टि तथा विवेक से निर्णय किया कि भारत किसी एक शिविर का सदस्य न बनकर तटस्थ और निर्गुट बना रहेगा। इस प्रकार उनकी प्रेरणा तथा मिस्र, यूगोस्लावाकिया और इन्डोनिशिया के सहयोग से निर्गुट देशों के संघ की स्थापना हुई। इस तटस्थ या निर्गुट नीति का अर्थ अन्य देशों से तटस्थ हो जाना, उनसे सम्बन्ध न रखना, निष्क्रिय या अकर्मण्य होना नहीं था। इसका उद्देश्य केवल यह था कि दो शक्तिशाली राष्ट्रों के दबाव में आकर कोई कार्य न करना, प्रत्येक समस्या को उसने गुण-दोषों, उसकी जटिलता तथा पेचीदगी का परिक्षण कर उसका समाधान खोजना तथा निष्पक्ष, निस्वार्थ होकर विश्व में शान्ति बनाये रखना, अनाचार, अनीति, दादागिरी पर अंकुश लगाना। इस नीति के अन्तर्गत भारत ने एक ओर तो विश्व के सभी देशों के साथ मैत्री और सहयोग के सम्बन्ध स्थापित किये और दूसरी और संयुक्त राष्ट्र संघ में अपने समान विचार वाले राष्ट्रों से परामर्श कर ऐसी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी की विश्व में युद्ध के खतरे टले। इस नीति पर चलने के कारण अमेरिका और रूस दोनों भारत की औद्योगिक, आर्थिक और वैज्ञानिक प्रगति के लिए उसकी सहायता करते रहे, देश का निर्माण-कार्य तेजी से होता गया।
आज विश्व का परिदृश्य बदल गया है। नेहरु, मार्शल टीटो तथा मिस्र के नसीर के निधन के बाद गुट-निरपेक्ष आन्दोलन दिशाहीन एवं दुर्बल हो गया। दूसरे, सोवियत संघ के विघटन और आर्थिक संकटों के कारण अमेरिका का वर्चस्व बढ़ गया है। अब अमेरिका ही विश्व की सर्वशक्तिमान शक्ति रह गया है। इस बदलते परिदृश्य में भारत को अपनी विदेश नीति में परिवर्तन करना होगा। अन्य देशों के साथ विशेषतः एंग्लो-अमेरिका गुट के साथ उसे अपने सम्बन्ध इस प्रकार होती रहे, अपने दो प्रतिदुन्द्वी देशों पाकिस्तान तथा चीन से इस प्रकार के सम्बन्ध बनें कि देश की सुरक्षा और अखंडता को आँच न आये। इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कभी वह भारत-चीन-रूस का एक गुट बनाने की शोचता है, तो कभी अमेरिका, इजराइल, भारत के सम्बन्धों को मजबूत बनाने के लिए क्रियाशील दिखाई पड़ता है। वह अपनी निष्पक्ष, न्याय का समर्थन करनेवाली छवि को बिगाड़ना नहीं चाहता। ईराक में अमेरिका के आचरण ने विश्व को बता दिया है के प्रेसिडेंट सद्दाम को विश्व-शान्ति को भंग करने वाला बताकर ईराक पर आक्रमण करना केवल बहाना था, उस अभियान के पीछे उद्देश्य केवल ईराक के तेल-भंडारों पर अधिकार करना था। भारत ने राष्ट्रपति बुश के दबाव डालने पर भी अपनी शान्ति-सेना ईराक में न भेजने का निर्णय कर नैतिक साहस का परिचय दिया है और इस बात पर बल दिया है कि संयुक्त राष्ट्र की प्रतिष्ठा और शक्ति को पुनः कायम किया जाये। भारत की इस बात पर बल दिया है कि संयुक्त राष्ट्र की प्रतिष्ठा और शक्ति को पुनः कायम किया जाये। भारत की इस नीति से विश्व का हित ही होगा। भारत को सबसे बड़ा खतरा पाकिस्तान से है। लाख चेष्टा करने पर भी वह पाकिस्तान को विवेक और शान्ति का मार्ग अपनाने के लिए राजी नहीं कर पाया है। पाकिस्तान काश्मीर की समस्या को विश्व शान्ति के लिए खतरा बताकर, अणु-अस्त्रों के प्रयोग की धमकी देकर भारत को ब्लैकमेल कर रहा है और अमेरिका जानबूझ कर उसके द्वारा चलाये जा रहे आतंकवाद की और से आंख मूंदे हुए है। ऐसी विषम स्थिति में भारत को बहुत सोच-समझ कर, देश की सुरक्षा और अखंडता को ध्यान में रखकर अपनी विदेश नीति अपनानी होगी। कहावत है पहले घर में दिया जलाओ बाद में मस्जिद में। भारत को यही मार्ग अपनाना होगा – पहले अपनी सुरक्षा के लिए जो मार्ग उचित हो उसे अपनाना चाहिए भले ही इजराइल से समझौता करना पड़े और दूसरी ओर अपने आर्थिक-औद्योगिक विकास के लिए लगातार दूसरे देशों से सहायता-सहयोग पाने के लिए प्रयास करने चाहिएँ।
भारत की विदेश नीति का लक्ष्य अपने राष्ट्र का हित होना चाहिए; शान्ति का दूत कहलाने के प्रलोभन को त्याग कर, ढुलमुल नीति छोड़कर, सुदृढ़, सुस्पष्ट नीति अपनानी चाहिए।
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