राजभाषा वह भाषा होती है जिसे प्रशासनिक कार्यों के लिए या कहें राजकार्य के लिए शासन तंत्र के विभिन्न मंत्रालयों, विभागों, कार्यालयों, न्यायालय या संसद आदि में प्रयुक्त किया जाता है। यह आवश्यक नहीं कि राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा एक ही हो। राष्ट्रभाषा तो राजभाषा हो सकती है, परंतु राजभाषा राष्ट्रभाषा बने यह आवश्यक नहीं है।
भारत में राजभाषा की समस्या पर हिंदी निबंध
ब्रिटिश शासन-काल में उच्चस्तर पर अंग्रेजी का राजभाषा के रूप में प्रयोग होता रहा और निम्न स्तर पर अंग्रेजों की कूटनीति तथा मुसलमानों को प्रसन्न करने के लिए उर्दू का प्रयोग होता रहा। इस प्रकार लम्बे समय तक राजभाषा के रूप में हिन्दी उपेक्षित रही। भारतेन्दु और उनके सहयोगियों ने ऊर्दू के स्थान पर हिन्दी का प्रयोग करने पर बल दिया। परन्तु रजनीतिक कारणों से उनका प्रयास सफल नहीं हो पाया। उसे कुछ सफलता मदन मोहन मलवीय तथा पुरुषोत्तम दास टंडन के भगीरथ प्रयत्नों से प्राप्त हुई, जब सरकार ने वैज्ञानिक रूप में यह स्वीकार कर लिया कि कोर्ट-कचहरियों में उर्दू के साथ-साथ हिन्दी का भी प्रयोग होगा; परंतु यह निर्णय केवल कागज पर लिखा रह गया, व्यवहार में उर्दू का ही प्रयोग होता रहा। यह स्थिति स्वाधीनता-प्राप्ति और देश के संविधान बनने तक बनी रही।
जब भारत का संविधान (1950) बनाया गया तो हिन्दी भाषा-भाषियों की विपुल संख्या और सभी क्षेत्रों में उसका प्रयोग देखकर देश की एकता और अखंडता बनाये रखने के लिए देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया।
संविधान के अनुच्छेद 342 तथा अनुच्छेद 343 में स्पष्ट संकेत है कि इस समय राजभाषा बनने के लिए जो कमियाँ हिन्दी में हैं, उन्हें दूर करने के लिए सतत् प्रयास किये जायेंगे। दो राज्यों के बीच अथवा संघ और किसी एक राज्य के बीच पत्रों के लिए अंग्रेजी या हिन्दी किसका प्रयोग हो, यह निर्णय राज्य सरकारों अथवा संघ सरकार पर छोड़ दिया गया। वे चाहें तो केवल हिन्दी, चाहें तो उच्चतम न्यायालय की भाषा अंग्रेजी ही रखने का प्रावधान था। आदेशों, नियमों, विनियमों, उपविधियों के अधिकृत पाठ अंग्रेजी में होंगे। स्पष्ट है कि संविधान की मूल भावना तो यह है कि धीरे-धीरे अंग्रेजी को समाप्त किया जाये और उसका स्थान हिन्दी ले ले।
भारत सरकार ने शिक्षा मंत्रालय को राजकार्य में हिन्दी का प्रयोग अधिकाधिक करने का दायित्व सौंपा। रुपया तो पानी की तरह बहाया गया और कुछ शब्दों-कोश और शब्द-सूचियाँ भी प्रकाशित हुईं, परन्तु कुछ तो यह कार्य त्रुटिपूर्ण था (शब्दावलियाँ इतनी दुरूह और संस्कृतनिष्ठ थी) कि उनका प्रयोग कार्यालयों में हो ही नहीं सकता था और कुछ उच्च पदों पर आसीन अधिकारीयों की उदासीनता और हिन्दी-विरोध के कारण हिन्दी का राजभाषा के रूप में विकास बहुत धीमी गति से हो पाया।
केन्द्रीय सरकार के अंग्रेजी जनाने वाले थोड़े से लोगों को और इससे भी अधिक हिन्दी विरोधी राज्यों को राजनितिक कारणों से संतुष्ट करने का निर्णय लिया। परिणामस्वरूप निर्धारित 15 वर्ष की अवधि के बाद भी अंग्रेजी का प्रयोग जारी रहा। 1963 में संसद ने राजभाषा अधिनियम पारित किया जिसमें यह व्यवस्था थी कि संघ के जिन कार्यों के लिए अंग्रेजी का प्रयोग होता रहा है उनके लिये आगे अंगेजी का प्रयोग किया जाता रहेगा। इस अधिनियम के कारण हिन्दी के राजभाषा बनने की उम्मीदों पर पाला पड़ गया।
1975 में राजभाषा विभाग की स्थापना की गई। अधिकाधिक राज-कर्मचारी हिन्दी सीखें, इसके लिए अनेक योजनाएँ और सुविधाएँ प्रदान की गई। पहले हिन्दी सीखना अनिवार्य नहीं था। राष्ट्रपति के आदेश से उन सब कर्मचारियों के लिए हिन्दी सीखना अनिवार्य हो गया जो उस समय तक 45 वर्ष के नहीं हुए थे। इस अधिनियम में यह भी कहा गया था कि यदि कोई कर्मचारी हिन्दी में कार्य नहीं करेगा तो उसका अहित नहीं होगा, परिणाम यह हुआ कि ये कर्मचारी हिन्दी सीखने के लिए तो पुरस्कृत होते रहे, परन्तु हिन्दी में कार्य न करने के लिए दंडित नहीं हो सकते थे।
गृह मंत्रालय का राजभाषा विभाग नियम और आदेश जारी करता रहा है, वार्षिक कार्यक्रम भी बनते हैं, पर न कोई आदेश का पालन करता है और कार्यक्रम कागजों पर लिखे रह जाते हैं, केवल औपचारिकता निभाई जाती है। हिन्दी की प्रगति देखने के लिए केन्द्रीय हिन्दी समिति है, प्रत्येक मंत्रालय में सलाहकार समितियाँ हैं जो समय-समय पर कुछ सुझाव और परामर्श भी देती हैं पर कार्यान्वयन कहीं नहीं होता।
संविधान में हिन्दी को राजभाषा बनाने और उसके समुचित विकास का प्रावधान है परन्तु सच्चाई यह है कि हिन्दी केवल संविधान में राजभाषा है, व्यवहार में वह अभी भी अंग्रेजी की अनुगामिनी ही नहीं, चेरी ही है। इसका प्रमुख कारण यही है कि हम अभी भी मानसिक रूप से गुलाम हैं, अंग्रेजी को ही श्रेष्ठ भाषा मानते हैं और फिर हमारे यहाँ शिक्षा की व्यवस्था और नौकरियों की सुविधा भी उन्हीं के लिए है जो अंगेजी पढ़े-लिखे हों। जब तक इस मानसिक गुलामी को दूर नहीं किया जाता, तब तक अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगों को ही जीवन में उन्नति के अवसर मिलते रहेंगे, तब तक अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगों को हो जीवन में उन्नति के अवसर मिलते रहेंगे, तब तक अंग्रेजी ही व्यावहारिक दृष्टि से देश की राजभाषा बनी रहेगी।