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भारत की परमाणु नीति

अणु बम की भयावहता एवं भारत की परमाणु नीति

द्वितीय महायुद्ध के अन्तिम चरण में सन् 1945 में अमेरिका द्वारा जापान के नगरों हिरोशिमा और नागासाकी पर अणु बम गिराने से जो वहाँ की दुर्दशा हुई, उससे अणु बम के विनाशकारी प्रभाव का, मानव जाती के समाप्त होने का खतरा जगजाहिर हो गया। उस दुर्घटना के कारण हजारों लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए, नगर विनष्ट हो गये, जो जीवित बचे वे विकलांग, विक्षिप्त, अंधे-बहरे-गूंगे हो गये। असंख्य असाध्य रोगों ने उनके स्वास्थ्य को चौपट कर उन्हें नारकीय यातना भोगने के लिए विवश कर दिया। इस बम-वर्षा ने उस पीढ़ी के लोगों को तो पंगु, जर्जर, अस्वस्थ बना ही दिया, आगे आने वाली पीढ़ियों में जन्म लेनेवाले बच्चे पंगु, विकलांग, अर्ध-विक्षिप्त, अविकसित, मन्द बुद्धि होगें। इसका दुष्प्रभाव मनुष्यों के शरीर और स्वास्थ्य पर ही नहीं पड़ेगा, प्रकृति, वनस्पति, जल, वायुमंडल पर भी पड़ेगा। यदि भूल, गल्ती या अविवेक के कारण किसी मदान्ध बौराये नेता के आदेश या इशारे पर अणु बम गिराया गया तो प्रलय का दृश्य उपस्थित हो जाएगा-भूमि सदियों तक बंजर हो जायेगी, पेड़-पौधे, घास, वनस्पतियाँ सब सूख जायेंगे, हरे-भरे मैदान रेगिस्तान बन जायेंगे, नदियों-सरोवरों का जल भाप बन कर जायेगा, पीने तक का पानी नहीं मिलेगा, वायु प्रदूषित होकर अनेक रोगों – व्याधियों को जन्म देगी। मानव अस्तित्व के लिए आवश्यक सभी पदार्थों का विनाश हो जायेगा, एक प्रकार से सृष्टि का अन्त हो जायेगा। धर्मवीर भरती ने अपने गीति-नाटक ‘अंधायुग’ में ब्रह्मास्त्र के दुष्परिणाम बताकर अणु बम की विनाशकारी, संहारकारी, विध्वंसकारी शक्ति और उसके दुष्परिणामों की ओर संकेत किया है।

जापान में हुए इस महाविनाश को देखकर केवल दुर्बल राज्य ही भयभीत, भविष्य के प्रति चिन्तित और आशंकित नहीं हुए, अणु बम बनाने वाले और बम बनाने की क्षमता रखनेवाले पश्चिम के देश फ्रांस और चीन जैसे देश भी मन ही मन भयाक्रान्त हो गये और विश्व-मंच पर आणविक अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण पर, परमाणु-परिक्षण के कर्योंक्रमों पर प्रतिबन्ध की बातें होने लगीं; अणु-अस्त्रों का विरोध करनेवाली शक्तियों का उदय हुआ और परमाणु-प्रसार प्रतिबन्ध सन्धि की चर्चा होने लगी, सन्धि का प्रारूप तैयार किया गया, बहुत-से देशों ने उस पर हस्ताक्षर कर दिये, अन्य देशों जैसे भारत, पाकिस्तान आदि पर हस्ताक्षर करने के लिए दबाव डाला गया। भारत उस सन्धि पर हस्ताक्षर करने को तैयार भी है, परन्तु कुछ शर्तों के साथ। उसकी मान्यता है कि यह सन्धि भेद-भाव से ऊपर हो, सबके लिए हो, परमाणु अस्त्र-शस्त्र सम्पन्न देश अपने इन शस्त्रों के भण्डारों को नष्ट कर दें या उनकी संख्य सीमित कर दें, भविष्य में परमाणु परिक्षण न हों, और न इन घातक, संहारक अस्त्रों का निर्माण हो। पर इन अस्त्रों के विशाल भण्डारों के स्वामी राज्यों, विशेषतः अमेरिका ने भारत के इस प्रस्ताव का विरोध किया। अमेरिका, फ्रांस, चीन जैसे देश आज भी आये-दिन परमाणु परिक्षण करते रहते हैं, अणु बमों से भी अधिक विनाशकारी बमों हाइड्रोजन बम आदि के निर्माण में संलग्न हैं, अपनी सैन्य शक्ति बढ़ा रहे हैं और भारत आदि देशों पर दबाव डालते रहे हैं कि वे न तो परमाणु परिक्षण करे, न अणु बम का निर्माण करे। इस भेद-भाव की नीति अपनाये जाने की स्थिति में और विशेषकर पड़ौसी देशों चीन और पाकिस्तान द्वारा परमाणु बम बनाने में सफल होने और उनका प्रयोग करने की धमकी दिये जाने की स्थिति में भारत को अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिका आदि देशों का प्रस्ताव ठुकराना पड़ा और उसके पास भी शत्रु के आक्रमण या आक्रमण की धमकियों का मुँहतोड़ जबाव देने की शक्ति है। “बचाव में ही सुरक्षा” है का पाठ उसने सीख लिया है। भारत जानता है ‘समरथ को नहिं दोष गोसाईं।’ 1964-65 में चीन द्वारा अणु विस्फोट करने के बाद विश्व में उसकी प्रतिष्ठा ही बढ़ी है, यह बात भी भारत जानता है। अतः उसने अपनी इस नीति की घोषणा कर दी है कि वह परमाणु शक्ति का प्रयोग शान्ति के लिए करेगा, देश के आर्थिक, औद्योगिक विकास के लिए, कृषि-उत्पाद बढ़ाने के लिए, चिकित्सा के क्षेत्र में करेगा तथा कभी अपनी ओर से अणु बम नहीं गिरायेगा, पर साथ ही चौकन्ना, सजग, सावधान रहेगा और शत्रु को ईंट का जवाब पत्थर से देगा। कवि ‘दिनकर’ की बात मानकर उसने निश्चय कर लिया है कि वृकों और व्याघ्रों के दाँत उखाड़ने की क्षमता रखने पर भी, बकरी के मेमनों में भेड़ियों से लड़ने की शक्ति पैदा कर ही सुरक्षित रहा जा सकता है, देश का विकास किया जा सकता है।

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