भारत और रूस के बीच सम्बन्ध स्वतंत्रता-पूर्व भी सौहार्दपूर्ण थे क्योंकि दोनों अत्याचारी,अनाचारी शासन के शिकार थे-भारत ब्रिटिश शासन का तथा रूस वहाँ के सम्राट जार का; दोनों ने संघर्ष कर अपने को स्वतंत्र करने के लिए अनेक यातनाएँ झेलीं। भारत के स्वातंत्र्य संग्राम में रुसी जनता की भारत के प्रति पूर्ण सहानुभूति रही। 1918 में जार का तख्ता पलट कर जो क्रान्ति वहाँ हुई और जिस जिस तीव्र गति से विकास कर वह विश्व की एक महान शक्ति बना उससे विश्व के अन्य देशों के साथ-साथ भारत भी विस्मय-विमुग्ध हो गया। पं. नेहरू ने 1927 में मास्को यात्रा की, वह समाजवादी विचारों से प्रभावित हुए, रूस की प्रगति ने भी उन्हें आश्चर्यचकित क्र दिया और उन्होंने अनुभव किया कि भारत की उन्नति का एकमात्र उपाय है रूस की तरह समाजवादी रचना, पंचवर्षीय योजनाएँ, शोषण-उत्पीड़न समाप्त करना, पूँजीपतियों का एकाधिकार खत्म करना, राष्ट्रीयकरण, औद्योगीकरण आदि।
स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद जब नेहरू ने दोनों में से किसी भी गुट में शामिल न होने का निर्णय किया और गुट-निरपेक्ष तथा तटस्थता की नीति अपनाने की घोषणा की तो रूस भी भारत के प्रति उदासीन हो गया। अमेरिका द्वारा भारत को आर्थिक सहायता, अनाज आदि दिया जाना भी एक कारण रहा। परन्तु शीघ्र ही अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत की भूमिका देखकर रूस ने अनुभव किया कि भारत अमेरिका के साथ नहीं है, वह वस्तुतः तटस्थ है, न्याय का पक्षधर और सब प्रकार के अन्याय, अत्याचार, शोषण का विरोधी है। अतः उसने भारत की और मित्रता, परस्पर सहयोग का हाथ बढ़ाया। संयुक्त राष्ट्र संघ में अनेक अंतर्राष्ट्रीय पर दोनों के विचार, नीतियाँ और कार्य समान थे। अतः दोनों और अधिक एक दुसरे के निकट आते गये। काश्मीर समस्या पर जहाँ अमेरिका ने पाकिस्तान का समर्थन किया वहाँ रूस ने भारत के न्यायसंगत पक्ष को ठीक मानकर उसका समर्थन किया, संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर वीटो (विशेषाधिकार) तक का प्रयोग किया। राजनीतिक क्षेत्र के अतिरिक्त आर्थिक क्षेत्र और सैन्य शक्ति के क्षेत्र में भी रूस ने पर्याप्त सहायता कर भारत को शक्तिशाली देश बनाने में योगदान दिया। भारत रूस से आर्थिक, तकनीकी सहायता पाकर स्वयं को पाकिस्तान के आक्रमण का मुकाबला करने और मुंहतोड़ जबाव देने में समर्थ अनुभव करने लगा। रूस ने अपने इंजीनियर भारत भेजे और भारत के युवक वैज्ञानिकों को अपने यहाँ प्रशिक्षण दिया। बोकारो के स्टील प्लांट का निर्माण और विकास इसका ज्वलंत उदाहरण है। रूस की सहायता से खनिज उत्पादन, विद्युत् उत्पादन, कृषि-उत्पादन सम्बन्धी अनेक योजनाएँ चलाई गईं और पूर्ण की गईं। रूस के इस सहयोग और सहायता-कार्यों से भारत का रूस के प्रति कृतज्ञता अनुभव करना स्वाभिक ही था। भारत और रूस दोनों में संस्कृति मेले और उत्सव आयोजित किये गये जिनसे वे एक-दूसरे के अधिक निकट आये। दोनों के नेताओं के बीच शिखर-वार्ताएँ हुईं, दोनों देशों के नेताओं ने शिष्टमंडलों ने एक-दूसरे के यहाँ जाकर, वार्त्तालाप करने के बाद जो विज्ञप्तियाँ प्रकाशित कीं, वक्तव्य दिये उनसे स्पष्ट हो गया कि इन दोनों देश के सम्बन्ध घनिष्ट मित्रों जैसे हैं। बुल्गानिन, खुश्चेव, ब्रेजनेव, गोर्वोचोव और पंडित नेहरू तथा इंदिरा गांधी पुरस्कार, फिल्मोत्सव, दोनों देशों के बच्चों का एक-दूसरे के देश में जाना, कुछ दिन वहाँ रहना आदि इसके प्रमाण हैं। दोनों देशों के बीच व्यापार भी बढ़ा।
सोवियत संघ के विघटन के बाद जब अमेरिका एकमात्र विश्वशक्ति रह गया, रुश कमजोर हो गया तो अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य बदल गया। उधर भारत ने अपनी अन्याय के प्रति विरोध की दृष्टि के कारण कुछ बातों में सोवियत रूस का विरोध भी किया। अफगानिस्तान और चैकोस्लोवाकिया के मामलों पर भारत ने रूस की नीतियों और कार्यवाही के प्रति अपनी असहमति प्रकट की, विरोध किया। परिणामतः भारत रूस के सम्बन्धों में पहले-जैसी ऊष्मा नहीं रही। जब अमेरिका के दबाव के कारण रूस ने भारत को क्रायोजनिक इंजिन एवं तकनीक देने का समझौता और वायदा पूरा नहीं किया, लटका दिया और रुपया-रूबल का झगड़ा खड़ा क्र दिया, उसने, आग्रह किया कि भुगतान रूबल में ही किया जाए। काश्मीर की समस्या पर भी उसका रुख बदल गया। अब तक वह उसे भारत का अभिन्न अंग मानता रहा था, अब उसे विवादास्पद मुद्दा और अनसुलझी समस्या कहने लगा। इससे दोनों देशों के सम्बन्धों में दरार पड़ने लगी, पर यह स्थिति कुछ समय तक ही रही।
रूस को शीघ्र ही पता लग गया कि अमेरिका स्वार्थी है, केवल अपना हित देखता है, अपनी शक्ति के बल पर विश्व का सिरमौर बनना चाहता है, दादागिरी करता है, किसी का सच्चा मित्र नहीं है तो फिर से उसने भारत की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया है। अब वह कहने लगा है कि क्रायोजिन इन्जिन का समझौता रद्द नहीं केवल कुछ समय के लिए निरस्त किया गया है, अब वह रूबल के स्थान पर रूपये लेने के लिए भी सहमत है, अब यह विवाद भी सुलझ गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ की शक्ति कम न होने देने की बात में भी दोनों सहमत हैं। ईराक पर अमेरिका के एक तरफा युद्द की निन्दा दोनों ने की है। आशा है कि भारत और रूस के सम्बन्ध भविष्य में बुल्गानिन-खुश्चेव के युग की तरह मैत्रीपूर्ण हो जायेंगे।