विद्यार्थियों के लिए किस्सा कुर्सी का पर निबंध
मनुष्य स्वभाव से सुविधा-भोगी, सुख-समृधि का इच्छुक ही नहीं होता महत्वाकांक्षी भी होता है, जो है, जिस स्थिति में है, समाज में जो उनकी मान-मर्यादा और प्रतिष्ठा है उससे अधिक होने की आकांक्षा करता है। कभी सन्तोष को परम सुख माना जाता था ‘सन्तोषय परम् सुखं‘ या ‘देख परायी चुपड़ी मत ललचावै मन‘, जैसी उक्तियाँ इसका संकेत करती हैं, पर आज स्थिति बिलकुल विपरीत है। आज महत्वाकांक्षी और उसकी पूर्ति का प्रयास ही श्लाघनीय माना जाता है। ऐसे वातावरण में, ऐसी मानसिकता में प्रभुता, सत्ता, एकाधिकार की चाह होना आश्चर्यजनक बात नहीं है। सब चाहते हैं कि उन्हें पद-प्रतिष्ठा, धन-धान्य प्राप्त हो। इसी मनोवृत्ति का परिणाम है कुर्सी को हथियाने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना बहाना और जब कुर्सी मिल जाये, उस पर बैठने का अवसर प्राप्त हो जाये तो फिर उस पर सदा बैठे रहने की आकांक्षा और उसके लिए नीति-अनीति, पाप-पुण्य, देश का हित या अहित सब कुछ भूलकर एक मात्र लक्ष्य और उद्यम रहता है कुर्सी को जकड़ कर पकड़े रहना और जब अन्त समय आता दिखाई दे इन्द्रियाँ सिथिल होने लगें तो उस कुर्सी को अपने आत्मीयों को, बेटे-बेटी को सौंपकर चैन की साँस लेना।
जनतंत्र में कुर्सी को पाने की पहली सीढी है चुनाव लड़ना और चुनाव जितना। चुनाव जीतकर कोई व्यक्ति विधायक या सांसद और फिर मंत्री या प्रधानमंत्री बन सकता है। अतः सभी राजनीतिक दल और उनके प्रमुख कार्यकर्ता, नेता चुनाव लड़ते हैं, चुनाव जितने के लिए अनैतिक कार्य करते हैं, भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं। चुनाव जितने के लिए अर्थात् कुर्सी पाने के लिए चुनाव के समय मतदाताओं को कहीं शराब पिलाकर, कहीं धन देकर, कहीं झूठे वायदों से लुभाकर तो कहीं बहुबल, गुण्डागर्दी, आतंक का सहारा लेकर, धमकियाँ देकर, जाली मतपत्रों पर मुहर लगाकर चनाव जीता जाता है। इस प्रकार कुर्सी पाने की पहली मुहीम से ही अनीति भ्रष्टाचार आरम्भ हो जाता है।
चुनाव जीतने के बाद, या सांसद बन जाने से ही मनुष्य संतुष्ट नहीं होता। अब वह उससे भी ऊँची और शानदार कुर्सी चाहता है, मंत्री बनकर अपार धन-रासी संचित करना, ऐश्वर्य का जीवन बिताना ही उसका ध्येय हो जाता है। प्रभुता का मद, शक्ति का अहंकार उसके चारित्रिक पतन के लिए उत्तरदायी होते हैं। अपने स्वार्थ की वेदी पर वह देश-हित और देश की प्रगति का बलिदान कर देता है। मंत्री-पद से आगे की मंजिल है प्रधानमंत्री होना। यह महत्त्वाकांक्षा राजनीतिक दल में फूट, उठापटक, विश्वासघात को जन्म देती है। व्यक्ति अपने आदर्श, अपनी पुरातन निष्ठा को त्याग कर कुछ भी करने के लिए तत्पर हो जाता है।
स्वातंत्र्योतर भारत का इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा पड़ा है। इन्दिरा गांधी की कूटनीति न पहचान कर, प्रलोभन में आकर चौधरी चरण सिंह ने मुरारजी देसाई के साथ विश्वासघात किया; वह प्रधानमंत्री तो बन गये पर कुर्सी के छीन जाने या ढकेल दिये जाने के भय से उन्होंने विश्वासमत पाने के लिए एक बार भी लोकसभा का अधिवेशन नहीं बुलाया। बाद में जनता पार्टी में भी यही नाटक होता रहा – प्रधानमंत्री बदलते रहे – कभी चन्द्रशेखर, कभी विश्वनाथ प्राप्त सिंह, कभी देवगौड़ा तो कभी इंद्रकुमार गुजराल। इस आपसी वैमनस्य, फूट, उठा-पटक का दुष्परिणाम भोगना पड़ता है देश को, देश की जनता को। शासन की अस्थिरता, अनिश्चय की स्थिति में सारा काम ठप्प हो जाता है या कछुए की चाल से चलता है। ‘सौ दिन चले अढाई कोस‘ कहावत चरितार्थ होती है। विकास-योजनाएँ या तो फाइलों में धूल चाटती रहती हैं या आधी-अधूरी पूरी होती हैं।
कुर्सी की चाह व्यक्तियों में ही नहीं राजनितिक दलों में भी होती है। प्रत्येक राजनीतिक दल सत्ता की कुर्सी पर बैठना चाहता है और इसके लिए ये दल भी वही सब करते हैं जो व्यक्ति करते हैं। अन्य दल सत्तारुढ़ता दल की कमजोरियाँ, त्रुटियाँ, दोषपूर्ण नीतियों पर प्रहार करते हैं, उजागर करते हैं। यदि ईमानदारी से यह कार्य किया जाये तो लोकतंत्र के लिए हितकर ही है, प्रतिपक्ष की भूमिका ही यह है। परन्तु जब मिथ्या प्रचार किया जाये, बेबुनियाद आरोप लगाये जाएँ, जनता को बर्गलाकर सत्ता को अस्थिर करने का प्रयास किया जाये तो इससे लोकतंत्र कमजोर होता है देश की क्षति होती होती है, पर कुर्सी पर बैठने की आकांक्षा व्यक्तियों तथा राजनितिक दलों को यही करने की प्रेरणा देती है, उकसाती है। दलबदल, खरीद-फरोख्त की नीति सच्चे लोकतंत्र के लिए घातक है।
कुर्सी पर बैठकर तथाकथित जनता के सेवक, जन-नायक जो कुछ करते हैं उसे देखकर तो लगता है कि वे जनता के हितैषी नहीं जनता का रक्त चूसने वाले हिंसक भेड़िये हैं अथवा जनता का सर्वस्व हरण करने वाले क्रूर, हृदयहीन डाकू हैं। सारांश यह कि कुर्सी और उसकी चाह ने देश का बंटाधार ही किया है।