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आधुनिक भारतीय नारी पर विद्यार्थियों और बच्चों के लिए हिंदी निबंध

शिक्षा के प्रसार ने भारतीय नारी के जीवन और व्यक्तित्व में क्रन्तिकारी परिवर्तन ला दिया है। अब उसकी शिक्षा केवल पढ़ने, लिखने, अंकगणित तक सीमित नहीं रह गयी है। वह विश्वविद्यालयों, आयुर्विज्ञान संस्थानों, प्रौद्योगिकी के प्रतिष्ठानों, विज्ञान की प्रयोगशालाओं में उच्च शिक्षा प्राप्त कर, वहाँ की उपाधियाँ लेकर जीवन के विभिन्न कर्मक्षेत्रों में उतर पड़ी है। आज भारतीय महिलाएँ डॉक्टर हैं, इंजीनियर हैं, प्रशासन अधिकारी हैं, वयुयानों में चालक तथा ऐयर होस्टैस के रूप में कार्य करती हैं। विद्यालयों तथा बैंकों में तो उनकी संख्या पुरुषों के बराबर दिखाई देती है। कुछ राजनीति में भाग लेकर विधायक, सांसद, मंत्री भी बन गयी हैं। इन्दिरा गांधी ने भारत की प्रधानमंत्री बनकर देश का नाम विश्व के कोने-कोने तक पहुँचा दिया। प्रदेश की मुख्य मंत्री के रूप में उत्तरप्रदेश की मायावती, बिहार की रावड़ी देवी और तमिलनाडु की जय ललिता ने अपनी कार्यकुशलता, चतुराई, राजनीतिक दाँव-पेंच से सबको चकित कर दिया है। आधुनिक नारी की इस चमत्कारपूर्ण प्रगति से सब आश्चर्यचकित और मंत्रमुग्ध हैं।

आज की भारतीय नारी घूंघट के भीतर सिकुड़ी-सिगटी, अवंगुंठन में लिपटी कुम्हड़े की बेल नहीं रह गई है। वह पुरुषों की तरह घर से बाहर निकलकर उन्हीं के समान परिश्रम, धैर्य, साहस से काम करती है। प्रतिभा और व्यवहारकुशलता में वह पुरुषों के कान काटती है, परीक्षा-परिणाम निकलते हैं तो उत्तीर्ण लड़कियों की संख्या उत्तीर्ण लड़कों से अधिक होती है। यह प्रगति देखकर लगता है कि मैथिलीशरण की काव्य पंक्तियाँ:

“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।।”

बेमानी हो गयी हैं। वह नरकृत शास्त्रों के बन्धन तोड़ रही है, स्वावलम्बी, स्वाभिमानी और आत्मगौरव से पूर्ण है।

परंतु प्रगतिशील नारी की यह तस्वीर केवल महानगरों और नगरों तक सीमित है। शेष भारत में उनकी स्थिति पर विचार करने से मन खिन्न ही होता है। यह सत्य है कि देश के अन्य भागों में भी नारी की स्थिति उतनी दयनीय-शोचनीय नहीं है जितनी आज से सौ-दो सौ वर्ष पूर्व थी जब उसे दासी या भाग्य मात्र समझा जाता था, उसके द्वारा अन्याय का विरोध करने पर उसे कठोर दंड दिया जाता था। फिर भी उसका जीवन कष्ट और क्लेशों से भरा हुआ है। बचपन से ही उसके साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार होता है, लड़के को पढ़ने-लिखने, खेलने-कूदने की जितनी स्वतंत्रता और सुविधाएँ दी जाती हैं उतनी लड़की को नहीं क्योंकि उसे पराये घर जाना है, उसे दहेज देना है। यदि पढ़ाया-लिखाया गया तो उसका लाभ उसकी ससुरालवालों को होगा। पत्नी बनने के बाद पति उसे दासी, जरखरीद गुलाम और अपनी काम-वासना की पूर्ति का साधन मात्र मानते है। यदि पत्नी मेहनत-मजदूरी करती है, अध्यापिका है, किसी बैंक या दफ्तर में काम करती है तो उसके वेतन पर वह अधिकार जमाता है। बेचारी को घर का काम भी करना पड़ता है और घर से बाहर परिश्रम भी। परम्परागत मान्यताओं के कारण श्वसुरगृह के अन्य सदस्य भी उसके साथ दुर्व्यवहार करते हैं। नारी होते हुए भी सास, ननद, जिठानी उसको अपमानित, तिरस्कृत करते हैं। कभी व्यंग्य बाणों से उसकी छाती छेदते रहते हैं, तो कभी उसका उपहास करते हैं। इस प्रकार आधुनिक भारतीय नारी की स्थिति आज भी दयनीय बनी हुई है।

जिन सुशिक्षित, स्वावलम्बी, स्वाभिमानी, आत्मगौरव सम्पन्न महिलाओं का उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं उनके अतिरिक्त और उनसे भी अधिक संख्या नगरों और महानगरों में वे शिक्षित और स्वयं को स्वावलम्बी एवं स्वतंत्र कहनेवाली युवतियाँ रहती हैं जो पाश्चत्य सभ्यता और उपभोक्ता संस्कृति के प्रभाव के फलस्वरूप मानसिक विकृतियों का शिकार हो जाती हैं। वे धन तो अर्जित किया जाता है जिन्हें अनैतिक ही कहा जायेगा। कुछ युवतियाँ कॉल-गर्ल बन जाती हैं जो वेश्याव्रिर्त्ती का ही दूसरा नाम है। कुछ पैसे के लिए मॉडलिंग का पेशा अपनाती हैं जिसमें शील, मर्यादा सब कुछ स्वाहा करना पड़ता है। कुछ विज्ञापनों के लिए अर्ध-नग्न अवस्था में सिगरेट या शराब पीते हुए फोटो खिंचवाती हैं। आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बनने के लिए वे जो कुछ करती हैं वह वेश्या-व्रिर्त्ती का ही दूसरा नाम है। उनकी स्थिति पुनः भोग्य की बन कर रह गयी है। विवाहिता नारी तो केवल एक की भोग्या होती है, पर ये आधुनिकाएँ एक की नहीं अनेक की भोग्या बनती हैं और वह भी अपनी इच्छा से। प्राचीन समय में कहा जाता था कि नारी को उपयोगी वस्तु (Chattel) माना जाता है, आज की आधुनिका भी उपयोगी वस्तु मात्र बन कर रह गयी है।

छात्राओं की स्थिति पर विचार करें तो वे भी पाश्चात्य सभ्यता और उपभोक्ता संस्कृति के जाल में फंस कर अपना, अपने परिवार और समाज का अहित ही कर रही हैं। महिला छात्रावासों में मादक-द्रव्यों का सेवन होने लगा है। विवाह-पूर्व प्रेम तथा पुरुष-संसर्ग के कारण वे अपने लिए ऐसी समस्या खड़ी कर लेती हैं कि जिसके परिणाम अत्यन्त भयंकर होते हैं। गर्भपात की व्यवस्था न होने पर वे आत्महत्या कर लेती हैं या फिर वेश्या बन जाने को विवश होती हैं।

महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में पढ़ी ये युवतियाँ विवाह के पवित्र बन्धन में बंधकर गृहस्थ जीवन में प्रवेश करती हैं तो कुछ रूप-गर्विता होने और कुछ सुशिक्षित होने के कारण मिथ्या अहंकार से ग्रस्त होकर पति तथा श्वसुर-गृह के सदस्यों के साथ शालीनता का व्यवहार नहीं करतीं। अपनी उद्दंडता, उच्छृंखलता से परिवार में ऐसा वातावरण उपस्थित कर देती हैं कि परिवार की सुख-शांति चौपट हो जाती है। नगरों, महानगरों में रहनेवाली आधुनिकाएँ द्विविधा में पड़ी हैं। न तो पूरी तरह पाश्चात्य रंग में रंग पायी हैं और न भारतीय संस्कृति से ही पूरी तरह विच्छिन्न हो पायी हैं। अनिर्णय और द्विविधा की स्थिति कभी मंगलकारी नहीं हो सकती। दुविधा में दोनों गये माया मिली न राम। घर अखाड़ा बन जाता है, तलाक की नौबत आ सकती है।

पर यह स्थिति भी केवल महानगरों और नगरों में है। शेष भारत में रहनेवाली स्त्रियों का जीवन इस अभिशाप से मुक्त है। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि आधुनिक भारतीय नारी की स्थिति पहले से बेहतर तो हुई है, पर अभी बहुत कुछ करना है।

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