सूर्योदय से पूर्व ब्रह्ममुहूर्त में स्वतंत्र शान्ति रहती है। पक्षी भी सूर्य की प्रथम किरण का स्पर्श पाकर ही कलरव करने लगते हैं:
“प्रथम रश्मि का आना रंगिणि तूने कैसे पहचाना,
कहाँ-कहाँ हे बलविहंगनी पाया तूने यह गाना।”
वातावरण शुद्ध होता है क्योंकि पेड़-पौधे, अन्य वनस्पतियाँ आक्सीजन या प्राणवायु छोड़ती हैं, फूलों का मकरन्द एवं सुरभि वातावरण को सुगन्धित बना देते हैं।
कुछ दिन पूर्व टायफाइड ज्वर के कारण मुझे दो सप्ताह तक खटिया गोड़नी पड़ी थी। इस अवधि में वैद्य जी, मित्रों तथा सम्बन्धियों सब ने बताया था की टायफाइड बुखार का कारण होता है आँतों में विषाक्त पदार्थों का प्रभाव और यह ज्वर उन्हीं लोगों को होता है जो आलस्य में पड़े देर तक सोते रहते हैं और व्यायाम नहीं करते। उदर की बिमारियों से मुक्त रहने के लिए सर्वोत्तम व्यायाम प्रातःकाल की सैर है।
अतः ज्वर उतरने और पूरी तरह स्वस्थ हो जाने पर मैने मैंने निर्णय किया कि मैं प्रतिदिन प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व शय्या त्यागकर, शौचादि नित्यकर्म से निवृत्त होकर सुबह की सैर के लिए जाया करूँगा। मेरे घर से दो फर्लांग दूर एक विशाल पार्क है जो वैशाली पार्क के नाम से विख्यात है। इस लम्बे-चौड़े पार्क चारों और विशालकाय, घनी छायावाले वृक्ष हैं। हरी मखमली घास का लम्बा-चौड़ा मैदान है। बीच-बीच में क्यारियाँ हैं जिनमें ऋतु के अनुसार सुगन्धित, रंग-बिरंगे फूलों के पौधे लगे हैं। कुछ झाड़ियां भी हैं। सैर करने वालों की सुविधा के लिए बैंच बिछी हैं – कुछ पत्थर की पटिया की बनी है तो कुछ लोहे-लकड़ी की। एक ट्यूब वैल है जिसके पानी से पेड़ों, पौधों, घास की सिंचाई होती रहती है। पार्क वृताकार है और सैर के लिए एक पक्की सड़क है जिस पर सैर करनेवाले चक्कर लगाते हैं। गर्मियों के मौसम में घूमनेवाले हरी-हरी घास पर नंगे पैरों सैर करते हैं। शरद ऋतु के आरम्भ में ओस से भीगी हरी घास पर चलने से सारा शरीर ताजगी, स्फूर्ति नयी शक्ति अनुभव करता है, मन और मस्तिष्क प्रफुल्लित हो उठते हैं, नेत्रों की ज्योति बढ़ती है।
मैं इसी पार्क की सैर करने के लिए प्रातःकाल पाँच बजे घर से चल देता हूँ और दस मिनट में पार्क में प्रवेश करने पर पार्क के चारों ओर की वृताकार पक्की सड़क पर सैर करने लगता हूँ। सैर करते समय मैं एक स्वास्थ्य पत्रिका में बताये गये नियमों का पालन करता हूँ – पहले धीरे-धीरे चलता हूँ, एक चक्कर धीमी गति से लगाने के बाद तेज चाल से चलता हूँ, चलते समय बाजुओं को आगे-पीछे हिलाता-डुलाता हूँ। चौथे चक्कर में दौड़ने की गति न बहुत तेज होती है और न बहुत धीमी। दौड़ते समय तो श्वास की गति स्वतः तीव्र हो जाती है, सैर करते समय सांस खींच कर धीरे-धीरे छोड़ता हूँ।
एक दिन पार्क के एक भाग में कुछ स्त्री-पुरुषों को प्राणायाम और योगासन लगाते देख मेरे मन में भी वैसा करने का विचार कौंधा। अतः अब मैं पार्क के केवल चार चक्कर लगाने के बाद कुछ क्षणों के लिए प्राणायाम भी करता हूँ। सैर करने के इस कार्यक्रम को शुरू किये दो सप्ताह ही हुए होंगे कि मैंने अपने तन-मन में परिवर्तन होते हुए अनुभव किया। दो सप्ताह के ज्वर के कारण जो शारीरिक दुर्बलता और मन का अवसाद मेरे तन-मन पर कुहरे की तरह छाया था वह उसी तरह फटने लगा जैसे सूर्य की तीखी किरणों से कुहरा छटने लगता है। आक्सीजन के प्रभाव से, घूमने दौड़ने से, रक्त संचार में तीव्रता आने से, प्राणायाम द्वारा फेफड़ों की कसरत आदि से मैं अनुभव करने लगा कि मेरा स्वास्थ्य द्रुत गति से सुधर रहा है, शरीर में नई शक्ति और स्फूर्ति आ रही है, मन प्रसन्न रहता है, कार्य करने में उत्साह और उमंग अनुभव करने लगा हूँ।
मेरा अनुभव बताता है कि सुबह की सैर से एक पंथ दो काज सिद्ध होते हैं: वह स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है, साथ ही मनोरंजन का साधन भी है। पार्क में बिछी बैंचों पर सैर करनेवाले जाने से पूर्व आपस में मनोविनोद करते हैं, गप्पें मरते हैं, चुटकुले सुनाते हैं, आपबीती मनोरंजक घटनाओं को किस्सागोई के अन्दाज में सुनाते हैं। वृद्धावस्था में तो सुबह की सैर ही एक मात्र लाभदायक व्यायाम है क्योंकि उससे शरीर के सब भागों में रक्त का संचार होता है, प्राणवायु क्षीण होती हुई शक्ति को पुनर्जीवित करती है। गांधी जी तो प्रातःकाल और सन्ध्या दोनों समय सैर करते थे और उनकी चाल इतनी तेज थी कि युवक भी पिछड़ जाते थे। अपनी ‘आत्मकथा’ में उन्होंने प्रातःकाल की सैर को सर्वोत्तम व्यायाम बताते हुए सबको परामर्श दिया है कि वे नित्यप्रति प्रातःकाल की सैर किया करें। वस्तुतः प्रातःकाल की सैर हमें वात-पित्त, जन्य अनेक रोगों से बचाती है, हमारे तन, मन, प्राणों में नवजीवन का संचार करती है, मन मस्तिष्क को प्रफुल्ल बनाती है। सुबह की सैर अत्यंत सरल, सस्ता और सुलभ व्यायाम है।