राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की एक कविता की पंक्तियाँ हैं:
नर हो न निराश करो मन को,
कुछ काम करो कुछ काम करो,
जग में रहकर कुछ नाम करो,
समझो न अलभ्य किसी धन को,
नर हो न निराश करो मन को।
न्र के दो अन्य पर्यायवाची शब्द हैं मनुष्य और पुरुष। मनुष्य वह है जो चिन्तन-मनन करे – मननात् मनुष्यः और पुरुष वह है जिसमें पुरुषार्थ हो। यदि हममें चिन्तन-मनन की शक्ति है, विवेक है, अपना हित-अहित सोच समझ सकते हैं तो हम मनुष्य हैं और यदि पुरुषार्थ कर सकते हैं तो पुरुष हैं।
हमारे मनीषी, विद्वान, दार्शनिक, धर्माचार्य और धर्म-ग्रंथ सभी कर्म का सन्देश देते हैं। इनमें गीता सर्वोपरि है जो निष्काम कर्म का सन्देश देती है। इनमें गीता सर्वोपरि है जो निष्काम कर्म का सन्देश देती है। कर्म वही कर सकता है जिसमें उत्साह हो, लग्न हो, कोई लक्ष्य हो, कोई कामना हो, जिसकी पलकों में भविष्य के सपने हों, दिल में हसरतें हों और सम्पूर्ण व्यक्तित्त्व उन हसरतों को पूरा करने के लिए दृढ संकल्प रखता हो। यदि व्यक्ति का हृदय आशावान है, तो वह कर्म में प्रवृत्ति होगा।
जय-पराजय, हानि-लाभ, जन्म-मरण, यश-अपयश साथ-साथ चलते हैं। इसलिए कहा गया है चक्रवत् परिवर्तन्ति सुखानि च दुखानि च। यह मानव की नियति है और इसे कोई टाल नहीं सकता। इसी बात को लक्ष्य कर तथा मानव की दुर्बलता पहचान कर प्रत्येक देश के मनीषियों ने निराशा त्याग का आशावान बनने का आग्रह किया है। महाभारत में लिखा है ‘आशा बलवती राजन्‘। गांधी जी ने कहा था आशा अमर है, इसकी आराधना कभी निष्फल नहीं होता। यूरोपीय विद्वान स्वेटमार्डेन लिखता है: “आशा हमारी शक्तियों को न केवल जागृत करती है अपितु दुगना-तिगुना बढ़ाती है।” देशी-विदेशी कवियों ने भी मनुष्य में आत्म-विश्वास पैदा करने, उसे निराशा के गर्त में गिरने से रोकने के लिए, उन्हें सान्त्वना देते हुए लिखा है कि बुरा वक्त सदा नहीं रहता, अतः निराश मह हो। प्रसाद जी लिखते हैं:
‘दुःख की पिछली रजनी बीच
वीकसता सुख का नवल प्रभात’
अंग्रेजी कवि शैली लिखता है: “If winter comes can spring be far behind.” तात्पर्य यह कि सबने निराशा त्याग कर आशा थामने की बात कही है। प्रकृति भी यही सन्देश देती है। जल की कोमल, नन्ही धारा पर्वत के शिखर से अपने उद्गम-स्रोत से निकल कर चल पड़ती है, मार्ग में कहीं चट्टानें आती हैं, कहीं मरुस्थल, कहीं झाड़-झंखाड़ पर वह सबसे संघर्ष करती हुई, अपना रास्ता बनाती हुई अंत में अपना लक्ष्य सागर पाकर ही अपनी यात्रा समाप्त करती है। इतिहास के महापुरुष चाहे वे सेनापति हों, समाज-सेवक हों, वैज्ञानिक हों सभी बाधाओं का सामना करते हुए, संघर्ष करते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करते रहे हैं। अनेक असफलताओं के बाद सफलता का चन्द्रमुख देखने को मिलता है। अतः निराश होना, निराश होकर उदास हो जाना, हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाना पुरुष को शोभा नहीं देता। सृष्टि ने मानवजाति को सब कुछ दिया है, प्राकृतिक संसाधनों से धरती का भंडार भरा पड़ा है, परन्तु उसे पाने के लिए परिश्रम, अध्यवसाय, पुरुषार्थ करना होगा। आशा से समन्वित कर्म ही हमें अपनी मंजिल तक पहुँचा सकता है। यह विश्व कर्मप्रधान है, कर्म की रंगस्थली है ‘कर्म प्रधान विश्व राखा।‘ जो निराश है, कुंठाग्रस्त है, जो पराजय भावना से आक्रान्त है वह कर्म नहीं कर सकता और जो कर्मविहीन है उसे सपने में भी सुख नहीं मिलता।
एक बात और। कर्मयोगी फल की चिन्ता नहीं करता। वह कर्त्तव्य समझ कर कर्म करता है, उसे कर्म करने में ही सुख-सन्तोष प्राप्त होता है। फल न भी मिले तो भी कर्म करते समय उसे अलौकिक सुख की अनुभूति होती है। निराशा पतनोन्मुखी प्रवृत्ति है, निराश व्यक्ति का दृष्टिकोण नकारात्मक होता है। इसके विपरीत आशावादी व्यक्ति कर्म करता है और करनेवाला कभी कभी सफल अवश्य होता है। इसीलिए वेदों में कहा गया है: कृतं में दक्षिणे हस्ते जयो में सव्य आहिता अर्थात् मेरे दाहिने हाथ में पुरुषार्थ है और बाएँ हाथ में विजय, सफलता। आशा आत्म विश्वास जगाती है, निराशा आत्मविश्वास का खंडन करती है और जो व्यक्ति आत्मविश्वास से रहित है, वह कभी सफल नहीं होता।
भले ही ‘सन्तोषाय परम सुखम्‘ कहा गया है पर यह मंत्र उन लोगों के लिए है जो बैरांगी हैं। कर्मठ व्यक्ति, महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति के लिए सन्तोष नहीं, स्पर्धा काम्य है। उसके लिए श्रम ही महत्त्व रखता है, आशा उसका सम्बल है।
“नर हो न निराश करो मन को” मंत्र को हमें अपनी गाँठ में बांध कर जीवन-मार्ग पर चलना चाहिए। इस मंत्र को अपनाने वाले कंठ में विजय-माला डालने के लिए देवतागण, नियति, प्रकृति सभी उत्सुक रहते हैं।