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राष्ट्रभाषा हिन्दी: दशा और दिशा पर विद्यार्थियों के लिए हिन्दी निबंध

जिस प्रकार राष्ट्र ध्वज, राष्ट्र पक्षी, राष्ट्र पशु देश की एकता के प्रतिक होते हैं वैसे ही राष्ट्रभाषा भी। जो भाषा थोड़ी-बहुत सम्पूर्ण राष्ट्र में बोली और समझी जाती है वही राष्ट्रभाषा होती है। उसका प्रयोग राष्ट्र के सामान्य जन करते हैं, वह सारे देश की सम्पर्क भाषा होती है। उसके माध्यम से पूरे राष्ट्र के नागरिक आपस में बातचीत करते हैं, पत्र-व्यवहार करते हैं और सार्वदेशिक स्तर पर साहित्य-सृजन होता है। राष्ट्र भाषा विदेशी भाषा नहीं होती, देश की ही कोई भाषा होती है, वह देशवासियों को एक सूत्र में बांधे रहती है। राष्ट्रभाषा की रक्षा देश की सीमाओं की सुरक्षा से भी अधिक आवश्यक है। प्रत्येक स्वतंत्र, स्वाभिमानी देश की अपनी राष्ट्रभाषा होती है।

युग-युग से भारत के मध्य देश की भाषा ही सारे देश के लोगों के बीच सम्पर्क-सेतु का कार्य करती रही है। हिन्दी भारत के मध्य देश की भाषा है और सैंकड़ों वर्षों से शासकों, धर्म-प्रचारकों, सामाजिक नेताओं ने हिन्दी का ही उपयोग किया है। दक्षिण के धर्माचार्यों – वल्लभ, विट्ठल, रामानुज, रामानन्द आदि ने बंगाल के चैतन्य महाप्रभु ने, महाराष्ट्र में महानुभाव सम्प्रदाय, वारकरी सम्प्रदाय ने, पंजाब के सिख गुरुओं ने, सूफी फकीरों ने गुजरात के स्वामी दयानन्द ने हिन्दी का प्रयोग किया। हिन्दी दीर्घकाल से सारे देश के जन-जन के पारस्परिक सम्पर्क की भाषा रही है। इतना ही नहीं, वह साहित्य की भी अखिल भारतीय भाषा रही है। कबीर, सूर, तुलसी के पद सारे देश के लोग गुनगुनाते हैं। मुसलमान शासकों के सिक्कों और शाही फरमानों में भी हिन्दी का प्रयोग होता था। ईसाई मिशनरियों ने अपना धर्म-प्रचार हिन्दी या हिन्दुस्तानी में ही किया। ब्रिटिश शासकों को हिन्दी सिखाने के लिए फोर्ट विलियम कालेज में प्रबन्ध किया गया। स्वतंत्रता संग्राम के समय विभिन्न प्रान्तों के नेताओं – तिलक, गांधी, राजगोपालचार्य, राजा राममोहन राय, केशवचन्द्र सेन आदि ने भावात्मक और राष्ट्रीय एकता को आवश्यक माना और कहा कि इसके लिए एक भाषा चाहिए और वह हिन्दी ही हो सकती है। कांग्रेस के अधिवेशनों के साथ राष्ट्रभाषा सम्मेलन भी होने और इनमें हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयास करने पर बल दिया गया।

स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दी ही विभिन्न भाषा-भाषियों के बीच संयोग – सूत्र बन गई। गांधी जी ने कहा कि हिन्दी ही देश की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए। हिन्दी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है। उनके अनुसार राष्ट्रभाषा होने के लिए हिन्दी में सब गुण हैं-उसे देश के बहुसंख्यक लोग बोलते-समझते हैं, वह सीखने में सुगम है। के. एम. मुंशी ने तो यहाँ तक कहा कि हिन्दी तो पहले से ही राष्ट्रभाषा है, उसे राष्ट्र भाषा बनाना नहीं है। हिन्दी भारत की एकमात्र ऐसी भाषा हैजिसमें हिन्दी-इतर क्षेत्रों में साहित्यकारों ने हिन्दी में साहित्य-सृजन किया है। हिन्दी की सार्वदेशिकता और सर्वप्रियता उसके राष्ट्रभाषा होने के प्रमाण हैं।

स्वतंत्रता के बाद राजनीति ने जोर पकड़ा, प्रादेशिकता की भावना प्रबल हुई, अंग्रजी जानने वाले उच्च अधिकारीयों ने अपना वर्चस्व खतरे में देखा, अंग्रेजी मानसिकता ने स्वाभिमान, आत्मगौरव और देश की प्रतिष्ठा को नजर अन्दाज किया, तो हिन्दी का विरोध होने लगा।

खेद है कि भाषा का प्रश्न राजनीतिबाजों के हाथों में चला गया है। राष्ट्रभाषा का प्रश्न राष्ट्र के सम्मान का प्रश्न है। कुछ लोग हिन्दी के लिए राष्ट्रभाषा शब्द पर आपत्ति करते हैं। “सम्पर्क भाषा” कोई हो सकती है। हिन्दी-विरोधी अंग्रेजी को सम्पर्क भाषा रखना चाहते हैं। एक वर्ग ऐसा भी है जो चाहता है कि संस्कृत को सम्पर्क भाषा माना जाये। इस समय राष्ट्रभाषा हिन्दी एक समस्या बनी हुई, क्योंकि विघटनकारी शक्तियों का जोर है।

हिन्दी विरोधियों ने एक प्रश्न उठाया है कि हिन्दी ही एकमात्र राष्ट्रभाषा क्यों हो, गुजरती, मराठी, बंगला, तमिल, तेलगु, आदि भी राष्ट्रभाषाएँ हों। देश की कोई भी भाषा राष्ट्र की बहुमूल्य और समादरणीय भाषा है, परन्तु तमिल, मलयालम, मराठी, उड़िया, बंगला आदि प्रदेश-विशेष की भाषाएँ हैं, हिन्दी पूरे राष्ट्र की भाषा है। हमारे नेताओं ने एक स्वर से इसी को सारे देश की सम्पर्क भाषा मानकर राष्ट्रभाषा कहा, अन्य भाषाओँ को देश की अन्य भाषाएँ माना। इन्हें हमारे संविधान की आठवीं अनुसूची में परिगणित कर दिया गया।

एक राष्ट्र में एक राष्ट्रभाषा हमारे गौरव और हमारी राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का प्रतिक है। सार्वदेशिक, सर्वराष्ट्रीय या पूरे देश की सम्पर्क भाषा बनने या मान्य होने के लिए विद्वानों ने निम्नलिखित अर्हताएं हैं:

  1. वह राष्ट्र में बहुसंख्यक जनता द्वारा बोली जाती हो,
  2. उसका अपने क्षेत्र से बाहर भी, व्यापक विस्तार हो,
  3. वह राष्ट्र की सांस्कृतिक और भाषिक विरासत की सशक्त उत्तराधिकारी हो,
  4. उसकी व्याकरणिक संरचना, सरल, सुबोध और वैज्ञानिक हो,
  5. उसकी शब्दसामर्थ्य तथा अभिजनात्म्क क्षमता उत्तम हो,
  6. उसमें जीवंतता और सजीवता हो ताकि वह नये शब्दों और प्रयोगों को आत्मसात करती हुई विकासोन्मुख रहे।
  7. उसकी लिपि पूर्ण और वैज्ञानिक हो।

भारत की भाषाओं में केवल हिन्दी ऐसी भाषा है जिसमें उपर्युक्त सब गुण पाये जाते हैं। हिन्दी भारत के सबसे बड़े भूभाग में बोली और समझी जाती है। हिन्दी संस्कृत, प्राकृत आदि की पूर्णतया उत्तराधिकारी है। विरासत में मिला, देश का सांस्कृतिक साहित्य हिन्दी ने ही प्रचारित किया है। हिन्दी अत्यंत सरल और वैज्ञानिक भाषा है। विदेश पर्यटक जिस भारतीय भाषा से आसानी से अपना लगाव बना लेते हैं तो वह हिन्दी से ही। हिन्दी का शब्द-भंडार अत्यंत समृद्ध है और इसमें देशी-विदेशी सब तरह के शब्दों को पचाने की अद्भुत क्षमता है। देवनागरी लिपि एक वैज्ञानिक लिपि है और हाल में जो नये वर्ण इसमें जोड़े गए हैं उनसे यह भारत की किसी भी भाषा को लिप्यांकित करने में समर्थ है।

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