प्रत्येक देश में अनेक राजनितिक दल होते हैं क्योंकि विचार-साम्य होना असम्भव है। इन दलों के निर्माण का आधार होता है राजनीतिक विचारधारा, सिद्धांतों, आर्थिक नीतियों में भेद। कोई गांधीवाद को, कोई समाजवाद को, कोई क्रान्ति को सही मानता है, कोई उदारवादी आर्थिक व्यवस्था के पक्ष में होता है तो कोई उसका घोर वोरोधी। यही कारण है कि इंग्लैण्ड में तीन राजनितिक दल हैं: कन्जर्वेटिव, लेबर तथा लिबरल। अमेरिका में दो दल हैं: रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक। भारत में पहले राजनितिक दलों की संख्या कम थी। प्रमुख राजनितिक दल कांग्रेस था और स्वतंत्रता के बाद अधिकांश वर्षों में वही सत्तारूढ़ रहा है, कांग्रेस दल का नेता ही देश का प्रधानमंत्री रहा है। परन्तु आज स्थिति भिन्न है। कांग्रस दल तो है ही, अन्य अनेक दल: समाजवादी, बहुजन समाजवादी, राष्ट्रीय समाजवादी, भारतीय जनता पार्टी, लोक शक्ति आदि अनेक दल उठ खड़े हुए हैं।
लोकतंत्र में विरोधी दलों का होना लोकतंत्र के लिए शुभ, स्वास्थ्यकर ही नहीं अनिवार्य है। यदि देश में एक ही दल हो, उसका विरोध करनेवाला कोई न हो तो वहाँ लोकतंत्र के स्थान पर तानाशाही होने लगती है। इन्दिरा गांधी देश में आपातकाल की घोषणा कर विरोधी दल के होते हुए भी तानाशाह बन गयी थीं। विरोधी दल होने पर सत्तारूढ़ दल और उसकी सरकार निरंकुश नहीं बन पाती, मनमानी नहीं कर सकती। विदेशी विद्वान ने लिखा है, “मान्यताप्राप्त विरोधी दल की उपस्थिति से निरंकुशता के मार्ग में बाधा पड़ती है।” विरोधी दल सत्तारूढ़ सरकार को, शासन-तंत्र को मर्यादित करते हैं। वे समय-समय पर सरकार की नीतियों, उनकी कार्यपद्धति, उनके कार्यकलाप की त्रुटियाँ, गल्तियाँ, विसंगतियाँ बताकर और जनता को सचेत करते हैं दूसरी ओर सरकार को चेतावनी देते हैं कि गल्तियाँ बताकर और जनता को इस बात से अवगत करा कर कि उसकी नीतियों से जनता और देश का कितना अहित हो रहा है एक ओर वे अपने भविष्य में सत्ता पाने का मार्ग प्रशस्त करती हैं तथा दूसरी और देश का अहित नहीं होने देतीं।
विरोधी दल संसद या विधान सभाओं में सरकार द्वारा पेश किये गये कानूनों पर बहस में भाग लेते हैं, सरकार द्वारा प्रस्तुत प्रारूप या मसौदे का बारीकी से अध्ययन करते हैं और यदि उसमें कोई त्रुटि, कोई विसंगति, कोई खामी है तो उसकी ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट करते हैं और इस प्रकार अच्छे और जनहितकारी कानून ही बन पाते हैं।
विरोधी दल का एक कार्य व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में समन्वय कराना भी है। यदि व्यवस्थापिका और कार्यपालिका पालन नहीं करती, उसका उल्लंघन करती है या आधे-अधूरे मन से कार्यन्वयन करती है तो विरोधी दल सरकार की कटु आलोचना करता है और उसे बाध्य करता है कि कानून का ठीक ढंग से पालन हो।
विरोधी दल का दायित्व है कि वह जनता की छोटी-से छोटी समस्या को ओर भी सरकार का ध्यान आकृष्ट करें और उसे बाध्य करे कि वह उन समस्याओं को शिघ्रातिशीघ्र हल कर जनता को समस्यामुक्त करे, उसके कष्टों को दूर करें।
देश पर यदि कोई संकट आता है, कोई प्राकृतिक आपदा-सूखा, बाढ़, भूकम्प, महामारी आदि अथवा कोई शत्रु देश हम पर आक्रमण करता है, उस समय विरोधी दलों को मतभेद भूल कर, सत्तारूढ़ सरकार के साथ सहयोग करना चाहिए, संकट-काल में सरकार, शासनतंत्र के साथ सहयोग करने का आह्वान करें। विरोधी दलों का कार्य केवल सरकार की आलोचना करना, छिद्रान्वेषण करना, उसकी गलतियों को उजागर करना ही नहीं है, रचनात्मक कार्यों में सहयोग करना भी है, यही विपक्ष की सच्ची भूमिका है।
भले ही स्पर्धा भावना के परिणामस्वरूप, आगामी चुनावों में जितने की खातिर विरोधी दल जनता के हित के कार्य करते हों पर उनसे देश का कल्याण ही होता है, जनता की सेवा ही होती है। सारांश यह कि लोकतंत्र में विरोधी दलों का अस्तित्व न केवल अनिवार्य है, उसकी रचनात्मक भूमिका से देश का अपार हित होता है। इसलिए लोकतंत्र में विरोधी दलों के अभाव में खड़ा ही नहीं हो सकता और सजग प्रहरी की भूमिका निबाह कर वे देश का कल्याण करते हैं।
जहाँ तक भारत के लोकतंत्र में विरोधी दलों की भूमिका का प्रश्न है उन्होंने सजग प्रहरी कार्य तो किया है, समय-समय पर सत्तारूढ़ सरकार की त्रुटियाँ बताकर उसे सचेत तथा जनता को जागरूक और प्रबुद्ध बनाया है। पर जब विधान-सभाओं के अन्दर और बाहर उनका आचरण देखते हैं, उस पर विचार करते हैं, मूल्यांकन करते हैं तो निराशा, क्षोभ, आक्रोश के भाव भी उमड़ते हैं।
सत्तारूढ़ दल को पदच्युत करने और स्वयं सत्ता के सिंहासन पर बैठने के लिए सांसदों, विधायकों की खरीद-फरोख्त का कार्य, सरकार को अस्थिर करने का प्रयास और इसी उधेड़बुन में विशालकाय जम्बो टाइप मंत्रीमंडल बनाना जनता और देश दोनों के लिए शुभ संदेश नहीं है। उत्तर प्रदेश में यही होता रहा है। कल्याण सिंह के समय वहाँ मंत्रीमंडल में मंत्रियों की संख्या 90 से कम थी तो आज मुलायम सिंह ने 90 से अधिक मंत्रियों की नियुक्ति कर रिकार्ड तोड़ डाला है। उत्तर प्रदेश जैसा गरीब और आर्थिक दृष्टि से दुर्बल प्रदेश इस भार को कैसे वहन करेगा? साथ ही इसका दुष्परिणाम यह भी होगा कि अंग्रेजी कहावत “Too many cooks spoil the broth” के अनुसार उसका प्रभाव शासन की कुशलता और योजनाओं की प्रगति पर भी पड़ेगा।
दूसरे, विधान-सभाओं तथा संसद में विधायकों का आचरण अशोभनीय और प्रजातांत्रिक मूल्यों के विपरीत है। आये दिन पीठाध्यक्ष के आसन के पास जाकर नारे लगाना, संसद की कार्यवाही ठप्प करना, संसद का समय बर्बाद करना और देश का धन नष्ट करना किसी भी दशा में उचित और शोभनीय नहीं है। परन्तु हाल के वर्षों में ये सब देखने को मिला है। संसद के प्रत्येक अधिवेशन में संसद का कार्य कम होता है, अधिकांश दिन या तो संसद की कार्यवाही घंटों के लिए स्थगित कर दी जाती है या फिर अगले दिन तक के लिए स्थगित करनी पड़ती है। इस प्रकार भारत की संसद और लोकतंत्र प्रणाली दोनों ही विदेशों में मखौल मजाक का पात्र बनी हैं। विदेशी समाचारपत्रों में लिखी गयी टिप्पणियों को पढकर लगता है कि भारत का संसद विक्षिप्तों, अर्धविक्षिप्तों, धूर्तों और गुण्डों का अखाड़ा बन गया है।