हमारा देश जनतंत्र है। हमारे संविधान में उसे धर्म-निरपेक्ष गणतंत्र कहा गया है। प्रजातंत्र या जनतंत्र को जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा संचालित होने वाली शासन-प्रणाली कहा गया है तथा चुनाव जनतंत्र की रीढ़ हैं। हमारे यहाँ भी प्रदेशों में तथा केन्द्र में प्रति पाँच वर्ष बाद चुनाव होते हैं। हमारे यहाँ चुनाव में खड़े होने, चुनाव लड़ने तथा चुनाव में मत देने का अधिकार प्रत्येक वयस्क नागरिक को है। चुनाव जीतकर ही कोई व्यक्ति विधायक या सांसद बन कर शासनतंत्र का महत्त्वपूर्ण अंग बन सकता है।
सब जानते हैं कि विधायक और सांसद बनने के बाद ही कोई व्यक्ति मंत्री, उपमंत्री बन सकता है। यह भी सर्वविदित तथ्य है कि मंत्री तो क्या विधायक भी रौब जमाकर अधिकारी वर्ग से काम निकलवा सकते हैं। वे अपना काम तो निकलवाते ही हैं, अपने रिश्तेदारों और मित्रों का भी स्वार्थ पूरा करने में उनकी सहायता करते हैं और सामान्य जनों का काम निकलवाने या अपराधियों, अभियुक्तों को अपराध-मुक्त कराने का भी काम करते हैं। हाँ, बदले में चाहते हैं कि उन्हें दान-दक्षिणा (रिश्वत) दी जाये। विधायक की इसी शक्ति को देखकर, पहचान कर नेताजी पहले तो चुनाव में प्रत्याशी घोषित होने के बाद जब चुनाव-अभियान शुरू होता है तो एक बार फिर दौड़धूप आरम्भ हो जाती है, मतपेटी में मतपत्र डालते समय मतदाता उन्हीं के चुनाव-चिन्ह के आगे मुहर या ठप्पा लगाये, इसके लिए वे क्या नहीं करते-पानी की तरह धन बहाते हैं, शराब पिलाकर गरीब लोगों को रिझाते हैं, जाती, धर्म सम्प्रदाय के नाम पर मत माँगते हैं, मतदाताओं की खुशामद करते हैं, जरूरत पड़ने पर वर्ग-विशेष के मुखिया के तलवे चाटने में, चरण-स्पर्श करने, पैरों में टोपी रखने से भी नहीं झिझकते। मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए झूठे आश्वासन देते हैं: तुम्हारी बस्ती में सड़क बनेगी, बिजली के खंभे और बल्ब लगाये जायेंगे, स्कूल खोले जायेंगे, चिकित्सा का प्रबन्ध किया जायेगा आदि आदि। इस प्रकार तथाकथित नेताजी की धूर्तता, मक्कारी, तिकड़मबाजी चुनाव-प्रोग्राम की चुनाव आयोग द्वारा घोषणा के तुरन्त बाद शुरू हो जाती है। वे स्वयं को जनता का सच्चा सेवक, हितैषी, देशभक्त, परम साधु, चरित्रवान् बताते हैं और जनता की आँखों में धूल झोंकने के लिए दो-चार जन-सेवा के कार्य भी कर डालते हैं। इस प्रकार चुनाव से पूर्व नेताजी भेड़ की खाल ओढ़े भेड़िया बने रहते हैं उनका वास्तविक रूप मतदाताओं को ज्ञात नहीं होता।
उनका असली रूप हमारे सामने चुनाव के बाद आता है। चुनाव जितने के बाद, विधायक या सांसद बनने के बाद स्वयं को जनता का सेवक कहनेवाले नेताजी विधायकों के लिए बने, सुख-सुविधाओं से सज्जित आवासगृह में पहुँचने के बाद मतदाताओं से मिलने के लिए दिन और समय निर्धारित करते हैं। मिलनेवालों की भीड़ इतनी होती है कि भीड़ के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुँचने में ही निर्धारित समय बीत जाता है। किसी से बात करने का समय ही नहीं होता। यदि कोई सौभाग्यशाली उनसे बात कर भी पाता है तो उसके पल्ले झूठे आश्वासन पड़ते हैं। काम उसी का हो पाता है जो भेंट-पूजा चढ़ाता है। धन की लालसा, बैंक बैलेंस बढ़ाने की, तिजोरियाँ भरने की लोलुपता सर्वोपरि होती है। पिछले वायदों, आश्वासनों को वह सहज ही भूल जाते हैं। जनता के प्रति तो उनका यह व्यवहार होता है।
जिस पार्टी का टिकट पाने, प्रत्याशी बनने के लिए उन्होंने एड़ी-चोटी का पसीना बहाया था, अपने को निष्ठावान कार्यकर्ता सिद्ध करने के अनेक हथकंडे अपनाये थे और जिस दल का कृपादृष्टि से वह विधायक या सांसद बने थे, उसके प्रति विश्वासघात करने में भी उन्हें संकोच नहीं होता। दल बदलने में, अपने दल के अध्यक्ष के विरुद्ध भाषण देने, आग उगलने और उसके चरित्र-हनन में भी उसे कोई संकोच नहीं होता। धन के लोभ, पद की लालसा, कुर्सी की भूख की आग में निष्ठा, सत्यवादिता, स्वामिभक्ति, देशप्रेम, जनसेवा का व्रत सभी एक पल में राख हो जाते हैं। ‘सत्यमेव जयते’ के स्थान पर ‘शक्तिमेव जयते’ की उक्ति सत्य सिद्ध होती है। ऐसे लोगों को ही थाली के बैंगन, गिरगिट की तरह रंग बदलने वाला कहा गया है और कटाक्ष किया गया है ‘जिसकी थाली और परात, उसके गीत गायें सारी रात।’ अतः ‘नेताजी’ नेता न होकर ढपोरशंख सिद्ध होते हैं।