हानी-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ: हिंदी निबंध – जीव को ब्रह्म का अंध कहा गया है ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी।‘ ब्रह्म का अंश होते हुए भी मनुष्य अपूर्ण है, सदा सफल नहीं होता, अनेक आपदाएँ और कष्ट है, सुख-दुःख का चक्र निरन्तर चलता रहता है। जो सोचता है, कल्पना करता है, अनुमान लगाता है वह मिथ्या सिद्ध होता है। इसीलिए कहा गया है ‘मेरे मन कछु और है कर्त्ता के मन कछु और’, ‘Man proposes God disposes.’ मानव जीवन की इसी विडम्बना को देखकर नियति, भाग्य, प्रारब्ध, विधि के वाम होने की बात कही गयी है। संस्कृत की उक्ति ‘भाग्यं’ फलति सर्वत्र न च विद्या न च पौरुषम्‘ भी इसी का समर्थन करती है। इतिहास और पुराण भी साक्षी है कि मनुष्य भाग्य के हाथ का खिलौना है।मर्यादा पुरुषोत्तम राम, उनकी पत्नी सती-साध्वी सीता ने सच्चरित्र, सर्वगुणस्मपन्न होते हुए भी, आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श भाई, आदर्श राजा होते हुए भी जीवन-भर कष्ट भोगे। अग्नि-परीक्षा देने के बाद भी सती सीता को लांछित कर वाल्मीकि के आश्रम में शेष जीवन बिताना पड़ा। सत्य हरिश्चन्द्र ने सत्य की रक्षा के लिए, अपने वचनों का पालन करने के लिए क्या-क्या कष्ट नहीं भोगे? राजा से श्मशान के रक्षक चांडाल का कार्य करना पड़ा, पुत्र और पत्नी की दुर्दशा देखी और कष्ट सहे। पाण्डवों ने अज्ञातवास की यातना झेली, गांधी ने सीने पर गोली सहकर प्राण त्यागे, महाबली, महादानी कर्ण को माता ने शैशव में त्याग दिया, उनका पालन-पोषण एक धींवर के घर हुआ, कवच-कुंडल दान में देकर मृत्यु को निमंत्रण दिया, सारा जीवन उपेक्षा, अन्याय, अपमान में बिता। इन सबकी त्रासदी देखकर यही लगता है कि मनुष्य के हाथ कुछ नहीं है, वह केवल कठपुतली है, भाग्य या नियति के हाथों उसे नाचना पड़ता हैं।
हानी-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ: हिंदी निबंध
मनुष्य के हाथ में न हानी है और न लाभ। सट्टा, शेयर बाजार, जुआ, लॉटरी, व्यापार में कभी लाभ होता है, भी हानी। लाख सावधानी बरतने पर भी करोड़पति दिवालिया बन जाता है और रंक राजा। लक्ष्मी चंचल है, जिस पर उसकी कृपा होती है वह धन-कुबेर बन जाता है और जिस पर कुपित होती है वह रातों-रात कंगाल हो जाता है। करोड़पति दर-दर का भिखारी बन कर ठोकरें खाता है। किसान वर्ष भर परिश्रम करता है, फसल पक जाती है, वह सोचता है अब उसका गोदाम अन्न से भर जायेगा, पर रातों-रात उपल-वर्षा होती है, सारी फसल नष्ट हो जाती है, उसके सारे सपने चूर-चूर हो जाते हैं । अग्निकांड, भूकम्प में वैभवशाली अट्टालिकाएँ, चहल-पहल से भरे बाजार एक क्षण में भूशायी हो जाते हैं, राख के ढेर बन जाते हैं। एडवर्ड अष्टम सम्राट बनने का स्वप्न देख रहा था कि मिसेज सिम्पसन के प्यार ने उसकी लुटिया ही डुबो दी और वह शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य के सिंहासन से वंचित हो गया। यह सब भाग्य का ही खेल तो था:
‘विधि का लिखा को मेटन हारा।’
संसार में तीन इच्छाएँ बतायी गयी हैं – पुत्रेषणा, वित्तेष्णा, लोकेषणा। सन्तान की इच्छा प्रत्येक व्यक्ति को होती है, वात्सल्य का भाव मूल भाव है, परन्तु देखा यह गया है कि सात-सात पुत्रियों के जन्म के बाद भी पुत्र के दर्शन नहीं होते। उधर सात-सात बेटों वाले दम्पत्ति की पुत्री का विवाह कर कन्या-दान का पुण्य प्राप्त करने की लालसा धरी की धरी रह जाती है। धनवान माता-पिता बेटे-बेटी के लिए तरसते रहते हैं और कंगाल दम्पत्ति के इतने बच्चे पैदा हो जाते हैं कि उनके लिए भोजन जुटाना भी कठिन हो जाता है। जन्म मनुष्य के हाथ में नहीं ईश्वर की इच्छा के अधीन है।
मृत्यु कौन चाहता है? मृत्यु-शय्या पर पड़ा रोगी विशेषज्ञ चिकित्सिकों का इलाज कराता है, मूल्यवान से मूल्यवान औषधियों का सेवन करता है, मृत्युंजय पाठ कराता है, पर काल को नहीं जीत पाता, यमराज के पाश से बच नहीं सकता। यमराज के पाश से कोई नहीं बच पाया – गांधी जी प्रार्थना-सभा में गोडसे की गोली का शिकार हुए, इन्दिरा गांधी अपने ही अंगरक्षकों की गोलियों से भून डाली गयीं, लाल बहादुर शास्त्री का ताशकंद में निधन हुआ, राजीव गांधी मानव-बम्ब के शिकार हुए। स्पष्ट है कि मरण भी हमारे नहीं, विधि के हाथ है। यश-अपयश के विषय में भी यही सत्य है। परिश्रम, कार्य-कुशलता का परिचय देते हैं अधीनस्थ कर्मचारी, श्रेय मिलता है उच्च अधिकारी को; जान पर खेलते हैं सैनिक, विजय-श्री की माला डाली जाती है सेनापति के गले में भारत की स्वतंत्रता के लिए प्राण न्यौछावर किये असंख्य स्वतंत्रता सेनानियों ने परन्तु स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिय श्रेय मिला गांधी जी को, वह राष्ट्र पिता कहलाये और नेहरू को जो स्वतंत्र देश के प्रथम प्रधानमंत्री बनाये गये। राम को बनवास देने के लिए मुख्यतः उत्तरदायी थी मंथरा, परन्तु अपयश मिला कैकेयी को।
युग-युग तक चलती रहे कठोर कहानी।
रघुकुल में भी थी एक अभागी रानी।।
यश-अपयश के लिए भी सौभाग्य या सुअवसर चाहिए जिस पर हमारा कोई वश नहीं है। यहाँ भी भाग्य की भूमिका ही प्रधान है।
परन्तु यह नकारात्मक दृष्टिकोण है। इससे मनुष्य अकर्मण्य बनता है। आज की भौतिक उन्नति, विविध साधनों की उपलब्धि, संसाधनों का विकास, पृथ्वी, जल, आकाश पर मनुष्य की विजय हमें बताती है कि बना कर्म किये, खून, पसीना एक किये, दृढ संकल्प और कर्मठता के हम कुछ नहीं कर सकते। मनुष्य अपने भाग्य का स्वयं निर्माता है।
अतः इस उक्ति से हमें यही सीखना चाहिए कि मनुष्य कर्म करे, उसके फल की आशा ईश्वर पर छोड़ दे। वही गीता का ‘अनासक्ति कर्मयोग‘ है – ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्‘ वस्तुतः मनुष्य को स्वयं को ईश्वर के हाथों एक साधन समझ कर अपना कर्त्तव्य पूरा करना चाहिए, अहंकार, दंभ से दूर रहना चाहिए।
यदि वह समझने लगे कि वह ईश्वर की प्रेरणा से ही कर्म करता है, तो उसमें विनय-भाव आ जाएगा, दंभ दूर हो जाएगा। अहंकार विमूढ़ता को जन्म देता है। स्वयं को कर्ता समझने का दंभ उसे विमूढ़ बनाता है – ‘अहंकारविमूढ़तात्मा कर्ताहभिती मन्यते।‘
निष्कर्ष यह कि न तो मनुष्य अकर्मण्य बने, भाग्यवादी होकर कर्म से सुख मोड़े; न उसे अहंकार करना चाहिए। सच्चा मार्ग तो निष्काम कर्म का ही है – फल-प्राप्ति की आकांक्षा न करते हुए सतत कर्म करने का।