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Unemployment

बेरोजगारी की समस्या पर हिन्दी निबंध विद्यार्थियों के लिए

भारत में आज ‘एक अनार सौ बीमार‘ कहावत चरितार्थ हो रही है। एक रिक्त स्थान के लिए सौ से अधिक प्रार्थनापत्र भेजे जाते हैं, एक पद के लिए सैकड़ों प्रत्याशी ‘क्यू’ लगाकर साक्षात्कार के लिए खड़े अपनी बारी की प्रतीक्षा करते देखे जाते हैं। यह सब बेरोजगारी के ही लक्ष्ण हैं। जब काम की कमी हो और काम करनेवालों की अधिकता हो तब बेरोजगारी या बेकारी की समस्या उत्पन्न होती है।

भारत में बेरोजगारी के तीन रूप हैं:

  • ग्रामीण बेकारी
  • नगरों में रहनेवाले शिक्षित-प्रतीक्षित युवकों, बी.ए., एम.ए., बी. एड उपाधिधारियों, डाक्टर, इंजीनियर, कृषि-पंडित, टेक्नीशियनों का बेरोजगार होना
  • श्रमिक वर्ग की बेकारी

इस प्रकार देश की जनसंख्या का एक बड़ा भाग बेरोजगारी का शिकार होकर कष्ट-क्लेश का जीवन बिता रहा है। उनका क्लेश शारीरिक भी है और मानसिक भी। यह बेरोजगारी देश, समाज, व्यक्ति सभी के लिए घातक है। बेरोजगारी निठल्लेपन, आलस्य, आवारागर्दी और अराजकता को जन्म देती है। इससे चारित्रिक पतन होता है, सामाजिक अपराध बढ़ते हैं, देश में अराजकता फैलती है, जिन युवकों को रोजगार नहीं मिलता, वे आवारागर्दी करते हैं, समाजद्रोही बनकर चोरी, डाका, लूट-पाट और ऐसे ही जघन्य कार्यों में लिप्त हो जाते हैं। इन युवकों में निराशा, तोड़-फोड़ और विद्रोह की मानसिकता उपजती है। बेरोजगार युवक स्वयं तो नाना आधि-व्याधियों से ग्रस्त होकर स्वयं कष्ट पाते ही हैं, उनका परिवार भी दुःखी और चिन्तित रहता है और वे आस-पड़ोस के जन-जीवन के लिए अनेक समस्याएँ खड़ी कर अभिशाप बन जाते हैं।

बेरोजगारी की समस्या पर हिन्दी निबंध विद्यार्थियों के लिये

अंग्रेजी में कहावत है ‘Empty mind is a devil’s workshop‘ अर्थात् खाली दिमाग भूतों का डेरा होता है। बेरोजगार युवाओं के मन-मस्तिष्क में ये भूत समय-समय पर प्रकट होकर कई तरह के बवण्डर खड़े करते हैं, वे हिंसा, तोड़-फोड़, मार-काट, लूटपाट, धोखाधड़ी के कार्यों में लिप्त हो जाते हैं। बेरोजगारी की समस्या के मुख्य कारण हैं – जनसंख्या वृद्धि, दोषपूर्ण शिक्षा-व्यवस्था, परम्परागत काम-धन्धों का अन्त, पढ़े-लिखे युवकों की मानसिकता, मनुष्यों के स्थान पर मशीनों-यंत्रों का उपयोग, औद्योगीकरण, वर्ग-भेद की नीति।

भारत में प्रतिवर्ष एक करोड़ बच्चे जन्म लेते हैं। इसका अर्थ हुआ कि प्रतिवर्ष अस्सी लाख बालक युवा-वर्ग में प्रवेश करते हैं और इन युवकों को रोजगार चाहिए। इतने लोगों को प्रतिवर्ष रोजगार उपलब्ध कराना किसी भी देश के लिए सम्भव नहीं है। इन बेरोजगारों की संख्या में और भी अधिक वृद्धि करते हैं अन्य देशों विशेषतः बांग्लादेश से आये विदेश से आये विदेशी या खाड़ी के देशों में बसे तथा आज खदेड़ दिये गये अप्रवासी भारतवासी।

बेरोजगारी का दूसरा प्रमुख कारण है हमारी शिक्षा-पद्धति के दोष। इस पद्धति में युवकों को केवल दफ्तर का बाबू या विद्यालयों का शिक्षक बनाया जाता है। डिग्री-डिप्लोमा लेकर ये युवक आफिस के बाबू या विद्यालयों के शिक्षक ही बन सकते हैं, और कोई काम-धंधा नहीं कर सकते। यह शिक्षा प्राप्त वे परिश्रम से, हाथ-पैर की मशक्कत के कामों से कतराते हैं, केवल सफेद कॉलर जैन्टिलमैन बने रहना चाहते हैं। किसान का बेटा किसानी से नफरत करता है, चमार का बेटा चमड़े के काम से दूर भागता है। सब श्रम से भागते हैं। यह शिक्षा रोजगारोन्मुख, व्यावसायिक शिक्षा (Vocational Studies) नहीं है। यह शिक्षा-व्यवस्था युवा-मानसिकता को रुग्ण बनाती है, साथ ही उसमें तथा देश की विकास योजनाओं में कोई तालमेल नहीं है। जैसे और जिस प्रकार प्रशिक्षित युवक उद्योगों को, विकास योजनाओं को पूरा करने के लिए चाहिए, वैसे युवक यह शिक्षा-व्यवस्था नहीं दे पाती; विद्यालय केवल पढ़े-लिखे युवकों की भीड़ को प्रति वर्ष अपने परिसर से ढकेल कर बाहर करते रहते हैं।

हमने स्वतंत्रता के बाद देश विकास के लिए औद्योगीकरण की नीति अपनायी। परिणामस्वरूप बड़े-बड़े कारखानों, औद्योगिक संस्थानों की स्थापना हुई। मनुष्यों के स्थान पर दानवकाय मशीनें काम करने लगीं, हाथ पैर से काम करनेवालों मजदूरों की आवश्यकता कम होती गई। घरेलू, कुटीर उद्योग धंधे जिन पर गांधी जी ने बल दिया था, काम कम होता गया है। परम्परागत काम-धंधे ठप्प हो गये हैं, लुहार, जुलाहे, बढ़ई, तेली सब बेकार हो गये हैं। इनके स्थान पर दिखाई देते हैं बाटा की जूता कम्पनियाँ, बिड़ला की कपड़ा-मिलें, टाटा के लोहे-इस्पात के कारखाने, कार-स्कूटर बनानेवाले असंख्य कारखाने आदि यंत्रों के प्रयोग से भी बेरोजगारी बढ़ी है।

सरकार के अधीन राष्ट्रीयकृत बैंक भी ऋण देते हैं बड़े अद्योगपतियों को। छोटे-छोटे उद्योग स्थापित करनेवाले उद्यमियों को बैंकों से कम ब्याज पर ऋण नहीं मिलता। परिणाम यह होता है कि छोटे उद्योगों की स्थापना से जो हजारों युवकों को काम मिल सकता था, वह नहीं मिलता और बेरोजगारों की संख्या जो कम हो सकती थी वह नहीं हो पा रही है।

राजकीय नौकरियों में आरक्षण की नीति ने भी इस समस्या को बढ़ाया है। अनेक पद अनुसूचित जाती, अनुसूचित जनजाति, पिछड़े वर्गों, आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। इन वर्गों के योग्य व्यक्ति जाती, अनुसूचित जनजाति, पिछड़े वर्गों, आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। इन वर्गों के योग्य व्यक्ति न मिलने के कारण ये पद खाली पड़े हुए हैं।

इस प्रकार बेरोजगारी की समस्या बढती जाती है और देश की अर्थव्यवस्था को कमजोर तथा देश के नवयुवकों को कुंठित बना रही है।

इस समस्या के समाधान के उपाय हैं:

  1. जनसंख्या-वृद्धि पर कठोर नियंत्रण, भले ही उससे अल्पसंख्यक या अनपढ़, गरीब लोग और ग्रामीण जनता असंतुष्ट हो जाए।
  2. शिक्षा का व्यवसायीकरण जिससे युवक बिजली लगाने, बिजली के उपकरणों – टी.वी, फ्रिज, रेडियो आदि की मरम्मत, स्कूटर-कार ठीक करने का काम सीखें और आजीविका कमान में सक्षम हों।
  3. छोटे-छोटे उद्योगों को लगाने के लिए युवकों को प्रोत्साहित करना और इसके लिए उनकी आर्थिक सहायता करना।
  4. कुटीर उद्योग धंधो को पुनर्जीवित करना, उन्हें अपने पैरों पर खड़े होने का अवसर देना।
  5. जन सामान्य को घरेलू उद्योग-धन्धों से बनी वस्तुओं का प्रयोग करने के लिए उत्साहित करना।
  6. नए-नए कारखानों, उद्योगों की स्थापना।
  7. शिक्षित युवकों की मानसिकता बदलना, शारीरिक श्रम का गौरव बताना और उन्हें शारीरिक श्रम करने की प्रेरणा देना।
  8. शिक्षा-संस्थानों तथा उद्योगों में ताल-मेल बिठाना। ऐसी योजनाएँ बनाना और चलाना और उनका समायोजन करते समय पढ़े-लिखे और अनपढ़ सभी तरह के बेरोजगारों का ध्यान रखना।

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