देवों की विजय; दानवों की
हारों का होता युद्ध रहा
संघर्ष सदा उर अन्तर में
जीवित रह नित्य विरुद्ध रहा।
अतः युद्ध का मूल कारण मानव के आन्तरिक भाव, विचार, जीवन-दृष्टि हैं। महत्त्वाकांक्षा, साम्राज्य-विस्तार की लालसा, अपना वर्चस्व और प्रभुता बनाये रखने की कामना के कारण ही युद्ध होते रहे हैं। दुर्योधन की सत्ता लोलुपता ने ही पाण्डवों के केवल पाँच गाँव देने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया, कृष्ण के शान्ति-प्रयत्नों पर पानी फेर दिया और महाभारत का महाविनाशकारी युद्ध हुआ। अहंकार, शक्ति का मद, प्रतिशोध की भावना भी युद्ध को जन्म देती है। जर्मनी के तानाशाह हिटलर ने इन्हीं भावनाओं से प्रेरित हो द्वितीय महायुद्ध छेड़ा और विश्व को महानाश के कगार तक ढकेल दिया। कभी-कभी युद्ध अन्याय, अनीति, अनाचार के विरुद्ध भी लड़ा जाता है। पाण्डवों ने कौरवों से, राम ने रावण से, गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार की अनीति के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजाया था। सब युद्ध के परिणाम जानते हैं: युद्ध में चाहे जय हो या पराजय, विजयी और विजित दोनों को हानी, क्षति पहुँचती है, अतः युद्ध किसी भी स्थिति में श्रेयस्कर नहीं होता। युद्ध का अर्थ है- महाविनाश, विध्वंस, अभाव, रोग, सभी प्रकार की अवनति। युद्ध के एक प्रहार से वर्षों के परिश्रम, अध्यवसाय और निष्ठा से बनायी गयी संस्कृति, भौतिक उन्नति, विकास, प्रगति का विनाश हो जाता है। सभ्यता, संस्कृति, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धियाँ, ललित कलाएँ, सुख-सुविधाओं के लिए बनाये गये भवन, उपकरण सब एक ही विस्फोटक की लपेट में आकर विलीन हो जाते हैं, मानव का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। द्वितीय महायुद्ध के समय हिरोशिमा तथा नागासाकी में हुआ रोएँ खड़े करने वाला विध्वंस और विनाश का दृश्य इसका प्रमाण है। उसकी स्मृति से अभी भी दिल दहल उठते हैं, युद्ध की विभीषिका साकार हो उठती है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विकास, उन्नति समृद्धि, सम्पन्नता के लिए शान्ति का वातावरण आवश्यक है। जब देश में शान्ति हो, तभी वहाँ के कलाकार, व्यापारी, वैज्ञानिक, उद्योगपति, सामाजिक कार्यकरता निर्भय होकर, सुख-चैन से निष्ठापूर्वक सतत परिश्रम और अध्यवसाय द्वारा देश को उन्नति के शिखर पर ले जा सकते हैं। यदि युद्ध विध्वंस, विनाश और पतन का पर्यायवाची है तो शान्ति निर्माण और सृजन का, उन्नति और प्रगति का समानार्थी है। अतः शान्ति काम्य है, वरेण्य है, मानव के लिए शुभ है, मंगलमय है। शांति और युद्ध एक साथ नहीं रह सकते। अतः शान्ति के लिए युद्धों की समाप्ति अनिवार्य है और इसीलिए युद्धों को टालने या समाप्त करने के प्रयास सदा से होते रहे हैं। द्वापर युग में कृष्ण ने पाण्डव-कौरवों के बीच होनेवाले युद्ध को टालने का भरसक प्रयत्न किया। वर्तमान युग में प्रथम महायुद्ध के बाद लीग ऑफ नेशन्स की तथा द्वितीय महायुद्ध के उपरान्त संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना इसी उद्देश्य से की गयी। कैसी विडम्बना है कि सब जानते है कि युद्ध का परिणाम महा विनाश और विध्वंस है, उसमें विजय पानेवाला भी सुखी नहीं रह पाता। महाभारत के युद्ध और महाविनाश के बाद विजयी पाण्डवों को विशेषतः युधिष्ठिर को अपार ग्लानी हुई और वे अपनी राजधानी छोड़कर हिमालय की यात्रा के लिए चल पड़े और वहीं उन्होंने अपने शरीर त्याग दिये। इस कटु तथ्य से अवगत होते हुए भी युद्ध होते रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रयत्नों से, पर उससे भी बढकर इस भय से कि यदि तृतीय महायुद्ध हुआ तो सम्पूर्ण मानव-जाती विलुप्त हो जाएगी कोई महायुद्ध तो नहीं हुआ है, पर छोटे-छोटे युद्ध होते रहे हैं- कभी कोरिया में, कभी एशिया में। इजराइल और पैलेस्टाइन के बीच, अमेरिका और ईराक के बीच युद्ध हाल ही की घटनाएँ हैं। पाकिस्तान और भारत के बीच कभी साक्षात् युद्ध तो कभी छद्म युद्ध होता ही रहता है। आज भी आतंकवादीयों के माध्यम से पाकिस्तान भारत के विरुद्ध अप्रत्यक्ष युद्ध ही कर रहा है। युद्धों से बचने का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली उपाय तो है मानव की मानसिकता, जीवन-दृष्टि, आन्तरिक भावों में परिवर्तन, उसे अहिंसा, सत्य, नैतिकता, सहृदयता, सौहार्द, सहयोग के मार्ग पर चलने की सद्बुद्धि और विवेक। यदि उसके हृदय में छिपा दानव, असुर, दैत्य कुचल दिया जाये और उसके स्थान पर देवता की प्रतिष्ठा हो तो युद्ध सदा के लिए समाप्त हो सकते हैं परन्तु सहस्रों वर्षों का इतिहास बताता है कि ऐसा संभव नहीं है, मानव की आसुरी प्रवृतियों को सर्वथा ध्वस्त करना सम्भव नहीं है। दूसरा उपाय है स्वयं को इतना समर्थ, शक्तिशाली बनाना कि शत्रु का साहस ही न हो कि वह हम पर आक्रमण करे। शान्ति के वचन उसी को शोभा देते हैं जिसमें बाहुबल हो, लड़ने की सामर्थ्य हो। शक्तिहीन व्यक्ति के मुख से निकले शान्ति और मैत्री के वचन केवल ढोंग हैं, अपनी कापुरुषता को छिपाने का आडम्बर। ‘दिनकर’ ने सच ही लिखा है:
जहाँ रही सामर्थ्य शोध की
क्षमा वहाँ विफल है
अथवा
जेता के विभूषण सहिष्णुता-क्षमा है, किन्तु
हारी हुई जीत की सहिष्णुता अभिशाप है।
यदि युद्ध को समाप्त करना है तो उसके मूल कारणों – अनीति, अत्याचार, शोषण, उत्पीड़न आदि को समाप्त करना होगा: