भारत में नारी के चारित्रिक गुणों-मधुर स्वभाव, मधुर वाणी, सेवा, ममता, त्याग, शील, लज्जा को ही उसके आभूषण माना जाता रहा है। प्रसाद जी ने ‘कामायनी’ में श्रद्धा के माध्यम से इनका उल्लेख किया है:
समर्पण लो सेवा का सार
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त्याग, माया, ममता लो आज
मुधरिमा लो अगाध विश्वास
और नारी के इन्हीं गुणों के कारण नारी की भूरि-भूरि प्रशंसा की है, उसे सजल संस्कृति का पतवार कहा है, पीयूष-स्रोत बताया है:
नारी तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास रजत नग पग तल में।
पीयूष स्रोत सी बहा करो
जीवन के इस समतल में।।
अपने इन्हीं गुणों के कारण वह अपने से अधिक बलशाली, मेधावी, अधिकारसम्पन्न, तेजस्वी पुरुष के हृदय पर राज्य करती रही है। हमारे ऋषि मुनियों ने उद्घोष किया:
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।
जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं। शरीरिक रूप-लावण्य, यौवन, अंग-भंगिमा, शोख अदाएँ उसे रमणी, कामिनी, सुन्दरी, मोहिनी बनाते हैं। उसके रमणी रूप का भी महत्त्व है परन्तु उससे अधिक महत्त्व है उसके शीलवती, मधुर भाषिणी, सद्गृहणी, वात्सल्यमयी, विनम्रता की प्रतिमूर्ति, लज्जाशीला रूप का।
नारी के तीन रूप हैं – जाया, जननी, भागिनी या कहें पत्नी, माता और बहिन। माता के रूप में वह अपनी सन्तान का पालन-पोषण करती है, उसे सुशिक्षित और सच्चरित्र बनाती है। कहावत है कि ‘पूत के पैर पालने में ही दिखने लगते हैं‘ अंग्रेजी में उक्ति है Child is the man। इनमें बचपन के वातावरण का महत्त्व बताया गया है। बचपन के संस्कारों का प्रभाव अमिट होता है, बचपन में कोई कुटेव पड़ जाये तो वह उसके सम्पूर्ण जीवन का विनाश कर देती है। आपने उस चोरी की कहानी सुनी होगी जो बचपन में चोरी करता था, दूसरों के घरों की चीजें लाकर अपनी माँ को दिखाता था और माँ उसे यह कुकर्म करने से रोकने की बजाय प्रसन्न होकर उसकी पीठ थपथपाती थी। एक दिन वह चोरी करते पकड़ा गया, न्यायालय में पेश किया गया, न्यायाधीश ने उसे कठोर दंड की सजा सुनाई। चोर ने न्यायाधीश से प्रार्थना कि उसे अपनी माँ से कुछ कहने की अनुमति दी जाये। अनुमति मिलने पर जब माँ ने उसकी बात सुनने के लिए अपना चेहरा उसकी और बढ़ाया तो उसने अपने दाँतों से उसे क्षत-विक्षत कर दिया और कहा कि मेरी दुर्दशा का मूल कारण मेरी माँ ही है। सारांश यह कि देश के भावी नागरिकों का निर्माण भी माँ करती है और उनके विनाश के लिए भी वही उत्तरदायी है। माँ की गोद ही संसार का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय है।
नारी का दूसरा रूप है पत्नी का, कुलवधु या कुल लक्ष्मी का। यदि उसमें सौम्य गुण है, वह पृथ्वी की तरह सहिष्णु है, गौ की तरह साधु-सरल है, आकाश की तरह उदार है, पुष्प की तरह कोमल है तो वह अपना, अपने पति का, सारे परिवार का जीवन स्वर्ग के समान सुखमय और शान्तिमय बना देती है। सन्ध्या के समय काम-धन्धा करने के बाद जब थका-मांदा पति घर लौटता है, वह उसका मधुर मुस्कान से, मीठी वाणी में स्वागत करती है, उसके हाथ-मुँह धुलाती है, प्रेमपूर्वक भोजन करती है, थकान मिटाने के लिए खटिया बिछाती है। उसका यह सौम्य व्यवहार पति के मन को मोह लेता है। इसके विपरीत यदि पति को घर में पैर रखते ही कर्कश, कठोर वाणी में अपशब्द सुनने को मिलें तो उसका मन रोष और वितृष्णा से भर जाता है। ऐसे दम्पत्ति का जीवन नरक तुल्य ही जाता है। बहिन का प्यार भाई को सम्बल प्रदान करता है।
सारांश यह कि नारी रमणी रूप में पति को रिझाये, माता के रूप में सन्तान का पालन करे। इतिहास और पुराण साक्षी हैं कि अपने इन्हीं गुणों के कारण सीता, सावित्री, दमयन्ती आज भी स्मरण की जाती हैं, नारी का आदर्श बतायी जाती हैं और आज भी इन्हीं गुणों के कारण यूरोप की फ्लोरैंस नाइटिंगेल लेडी ऑफ ड लैम्प के नाम से प्रसिद्ध हैं और कलकता के दीनहिनों, विकलांगों की आजीवन सेवा करनेवाली मदर टैरेसा को संतों की श्रेणी में गिना जाता है। अतः नारी का आभूषन सौन्दर्य नहीं उसके सौम्य गुण हैं।