प्रायः नौकरी उस पुरुष को तथा नौकरानी उस स्त्री को कहा जाता है जो किसी परिवार के घर की सफाई का, रसोईघर में खाना पकाने, बर्तन माँजने का, बाजार से सौदा-सुल्फ लाने का, घर के बच्चों की देखभाल आदि का काम करता है। पर नौकरी का अर्थ है विद्यालयों-महाविद्यालयों में शिक्षा कर अध्यापन-कार्य करना, सरकारी और अर्धसरकारी कार्यालयों में लिपिक आदि का काम करना, व्यवसायिक शिक्षा प्राप्त कर या विशेष प्रशिक्षण प्राप्त कर किसी संस्था में काम करना, बैंकों में काम करना और उसके बदले निश्चित वेतन प्राप्त करना।
हमारे देश में नौकरी करनेवाली स्त्रियों के प्रमुखतः तीन वर्ग हैं:
1वे जागरूक, स्वाभिमानी स्त्रियाँ जो स्वतंत्र जीवन बिताना चाहती हैं, अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाकर मान-सम्मान का जीवन बिताने की इच्छुक हैं। 2वे जिन्हें पारिवारिक परिस्थितियों के कारण परिवार का पालन करने के लिए नौकरी करनी पड़ती है। ऐसी स्त्रियों को एक और परिवार के सदस्यों का पालन-पोषण करना पड़ता है तथा दूसरी और पति और सन्तान से वंचित होकर सारा जीवन एकाकी रहकर, उबते हुए बिताना पड़ता है क्योंकि उसके घरवाले केवल अपना स्वार्थ देखते हैं, युवा कन्या का विवाह करना ही नहीं चाहते। इनका जीवन का सारा रस भीतर ही भीतर सूखता चला जाता है। 3तीसरे वर्ग की युवतियाँ विवाह के बाजार में अपना मूल्य बढ़ाने के लिए नौकरी करती हैं और किसी सम्पन्न परिवार में विवाह होने के बाद नौकरी छोड़ देती हैं। इस वर्ग की नारियाँ उच्च वर्ग की होती हैं, उनके परिवार के सदस्यों की पहुँच होती है। अतः उन्हें नौकरी पाने में कोई कठिनाई भी नहीं होती और वे केवल समय-यापन के लिए या समाज में प्रतिष्ठा पाने के लिए नौकरी करती हैं। उनके लिए नौकरी करना मनोरंजन का साधन है, पिकनिक में जाने या बाजार में खरीदारी करने जैसा। वस्तुतः यह वर्ग समाज का अहित करता है क्योंकि यदि नौकरी न करें तो अन्य जरूरतमंद स्त्रियों को नौकरी मिल सकती है और उके परिवारों का जीवन सुखमय बन सकता है।नौकरी करने की विवशता और आवश्यकता केवल मध्य और निम्न मध्य वर्ग की स्त्रियों के लिए है। वे आज की महँगाई के जमाने में जब केवल पति की आय से घर का खर्च नहीं चल सकता, बच्चों की पढाई ठीक से नहीं हो सकती, नौकरी कर अपने वेतन से घर के बजट को संतुलित रख सकती हैं और जीवन-स्तर सुधार सकती हैं। इस वर्ग की सुशिक्षित स्त्रियाँ काम चाहती हैं। उनमें प्रतिभा भी है, लग्न भी है, वे हर तरह से सुयोग्य हैं, पर ये सब गुण होते हुए भी वे नौकरी नहीं कर पातीं क्योंकि इनके लिए नौकरी के अवसर उपलब्ध नहीं हैं। इस विवशता की स्थिति में एक और परिवार सुख से नहीं रह पाता और दूसरी ओर स्वयं इन स्त्रियों का जीवन कुंठाग्रस्त रहता है और उनको अनेक मानसिक रोग सताने लगते हैं।
नौकरी करनेवाली कुछ स्त्रियाँ अपने मिथ्या अहंकार के कारण, परिवारवालों के साथ अशालीन, अभद्र व्यवहार करने लगती हैं, पति के साथ दुर्व्यवहार करती हैं, जिससे गृह-कलह होता है, परिवार की शान्ति भंग होती है। सब का जीवन कष्ट-क्लेश में बीतता है।
अब तनिक उन कामकाजी महिलाओं की समस्याओं पर विचार करें जो सामान्य हैं जिनमें न मिथ्या अहंकार की भावना है और न कोई हीन ग्रंथि, वे महत्वाकांक्षी भी नहीं हैं। वे स्वयं भी सुखी रहना चाहती हैं और अपने परिवार को भी सुखी बनाना चाहती हैं। उनकी एक समस्या तो यह है की पुरुष-प्रधान समाज में, परम्परागत विचारों और मान्यताओं के कारण इन कामकाजी महिलाओं को घर-गृहस्थी का बोझ भी ढोना पड़ता है, उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे रसोई में खाना पकायें, बच्चों के देखभाल करें, बूढ़े सास-ससुर की सेवा करें। दूसरी ओर उन्हें प्रातःकाल नौ बजे से संध्या समय पाँच-बजे तक दफ्तर में कार्य करना पड़ता है। आठ घंटे लगातार काम करने के उनका शरीर थक कर चूर हो जाता है और मन में किसी भी काम-काज कैसे करे? उधर पति महोदय आशा करते हैं कि उनके चाय-नाश्ते-भोजन का प्रबन्ध पत्नी करे। पत्नी की सहायता करने, उसका हाथ बंटाने की बजाय वह आराम से लेट पत्नी के आने की प्रतीक्षा करते हैं कि वह आये और चाय बनाए।
दफ्तर में उन्हें एक अन्य विपदा का सामना करना पड़ता है। दफ्तर का उच्च पदाधिकारी जिसके अधीन उसे काम करना पड़ता है उसका यौन-शोषण करना चाहता है। उसकी गिद्ध दृष्टि उसके सुन्दर शरीर और यौवन पर लगी रहती है और यदि वह अधिकारी के इशारों को नहीं समझती या समझ कर भी उसके प्रति उदासीन रहती है तो उसे तरह-तरह से परेशान किया जाता है। उसकी हालत इधर कुआँ तथा उधर खाई के बीच की हो जाती है। वह कबीर के शब्दों में “दो पाटन के बीच में साबुत बचौ न कोय” वाली स्थिति में होतु है।
सारांश यह कि नारी एक ओर नौकरी के समुचित अवसर न मिल सकने के कारण कुंठा का जीवन बिताती है तथा दूसरी ओर नौकरी मिलने पर परिवारवालों के व्यवहार के कारण क्लेश पाती है तथा दफ्तर के अधिकारीयों के आचरण से मानसिक यातना भोगती है।