(4) बहुव्रीहि समास
समास में आये पदों को छोड़कर जब किसी अन्य पदार्थ की प्रधानता हो, तब उसे बहुव्रीहि समास कहते है। दूसरे शब्दों में – जिस समास में पूर्वपद तथा उत्तरपद – दोनों में से कोई भी पद प्रधान न होकर कोई अन्य पद ही प्रधान हो, वह बहुव्रीहि समास कहलाता है। जैसे: दशानन- दस मुहवाला- रावण।
जिस समस्त-पद में कोई पद प्रधान नहीं होता, दोनों पद मिल कर किसी तीसरे पद की ओर संकेत करते है, उसमें बहुव्रीहि समास होता है।
‘नीलकंठ’, नीला है कंठ जिसका अर्थात शिव। यहाँ पर दोनों पदों ने मिल कर एक तीसरे पद ‘शिव’ का संकेत किया, इसलिए यह बहुव्रीहि समास है।
इस समास के समासगत पदों में कोई भी प्रधान नहीं होता, बल्कि पूरा समस्तपद ही किसी अन्य पद का विशेषण होता है।
समस्त-पद | विग्रह |
---|---|
प्रधानमंत्री | मंत्रियो में प्रधान है जो (प्रधानमंत्री) |
पंकज | (पंक में पैदा हो जो (कमल) |
अनहोनी | न होने वाली घटना (कोई विशेष घटना) |
निशाचर | निशा में विचरण करने वाला (राक्षस) |
चौलड़ी | चार है लड़ियाँ जिसमे (माला) |
विषधर | (विष को धारण करने वाला (सर्प) |
मृगनयनी | मृग के समान नयन हैं जिसके अर्थात सुंदर स्त्री |
त्रिलोचन | तीन लोचन हैं जिसके अर्थात शिव |
महावीर | महान वीर है जो अर्थात हनुमान |
सत्यप्रिय | सत्य प्रिय है जिसे अर्थात विशेष व्यक्ति |
तत्पुरुष और बहुव्रीहि में अन्तर: तत्पुरुष और बहुव्रीहि में यह भेद है कि तत्पुरुष में प्रथम पद द्वितीय पद का विशेषण होता है, जबकि बहुव्रीहि में प्रथम और द्वितीय दोनों पद मिलकर अपने से अलग किसी तीसरे के विशेषण होते है। जैसे: ‘पीत अम्बर =पीताम्बर (पीला कपड़ा )’ कर्मधारय तत्पुरुष है तो ‘पीत है अम्बर जिसका वह – पीताम्बर (विष्णु)’ बहुव्रीहि। इस प्रकार, यह विग्रह के अन्तर से ही समझा जा सकता है कि कौन तत्पुरुष है और कौन बहुव्रीहि।
विग्रह के अन्तर होने से समास का और उसके साथ ही अर्थ का भी अन्तर हो जाता है। ‘पीताम्बर’ का तत्पुरुष में विग्रह करने पर ‘पीला कपड़ा’
और बहुव्रीहि में विग्रह करने पर ‘विष्णु’ अर्थ होता है।
बहुव्रीहि समास के भेद
बहुव्रीहि समास के चार भेद है:
- समानाधिकरणबहुव्रीहि
- व्यधिकरणबहुव्रीहि
- तुल्ययोगबहुव्रीहि
- व्यतिहारबहुव्रीहि
(i) समानाधिकरणबहुव्रीहि: इसमें सभी पद प्रथमा, अर्थात कर्ताकारक की विभक्ति के होते है; किन्तु समस्तपद द्वारा जो अन्य उक्त होता है,
वह कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, सम्बन्ध, अधिकरण आदि विभक्ति-रूपों में भी उक्त हो सकता है।
जैसे: प्राप्त है उदक जिसको = प्राप्तोदक (कर्म में उक्त);
जीती गयी इन्द्रियाँ है जिसके द्वारा = जितेन्द्रिय (करण में उक्त);
दत्त है भोजन जिसके लिए = दत्तभोजन (सम्प्रदान में उक्त);
निर्गत है धन जिससे = निर्धन (अपादान में उक्त);
पीत है अम्बर जिसका = पीताम्बर;
मीठी है बोली जिसकी = मिठबोला;
नेक है नाम जिसका = नेकनाम (सम्बन्ध में उक्त);
चार है लड़ियाँ जिसमें = चौलड़ी;
सात है खण्ड जिसमें = सतखण्डा (अधिकरण में उक्त)।
(ii) व्यधिकरणबहुव्रीहि: समानाधिकरण में जहाँ दोनों पद प्रथमा या कर्ताकारक की विभक्ति के होते है, वहाँ पहला पद तो प्रथमा विभक्ति या कर्ताकारक की विभक्ति के रूप का ही होता है, जबकि बादवाला पद सम्बन्ध या अधिकरण कारक का हुआ करता है। जैसे: शूल है पाणि (हाथ) में जिसके = शूलपाणि; वीणा है पाणि में जिसके = वीणापाणि।
(iii) तुल्ययोगबहुव्रीहिु: जिसमें पहला पद ‘सह’ हो, वह तुल्ययोगबहुव्रीहि या सहबहुव्रीहि कहलाता है। ‘सह’ का अर्थ है ‘साथ’ और समास होने पर ‘सह’ की जगह केवल ‘स’ रह जाता है। इस समास में यह ध्यान देने की बात है कि विग्रह करते समय जो ‘सह’ (साथ) बादवाला या दूसरा शब्द प्रतीत होता है, वह समास में पहला हो जाता है। जैसे- जो बल के साथ है, वह = सबल; जो देह के साथ है, वह सदेह; जो परिवार के साथ है, वह सपरिवार; जो चेत (होश) के साथ है, वह = सचेत।
(iv) व्यतिहारबहुव्रीहि: जिससे घात-प्रतिघात सूचित हो, उसे व्यतिहारबहुव्रीहि कहा जाता है। इ समास के विग्रह से यह प्रतीत होता है कि ‘इस चीज से और इस या उस चीज से जो लड़ाई हुई’। जैसे: मुक्के-मुक्के से जो लड़ाई हुई = मुक्का-मुक्की; घूँसे-घूँसे से जो लड़ाई हुई = घूँसाघूँसी; बातों-बातों से जो लड़ाई हुई = बाताबाती। इसी प्रकार, खींचातानी, कहासुनी, मारामारी, डण्डाडण्डी, लाठालाठी आदि।
इन चार प्रमुख जातियों के बहुव्रीहि समास के अतिरिक्त इस समास का एक प्रकार और है। जैसे:
प्रादिबहुव्रीहि: जिस बहुव्रीहि का पूर्वपद उपसर्ग हो, वह प्रादिबहुव्रीहि कहलाता है। जैसे: कुत्सित है रूप जिसका = कुरूप; नहीं है रहम जिसमें = बेरहम; नहीं है जन जहाँ = निर्जन।
तत्पुरुष के भेदों में भी ‘प्रादि’ एक भेद है, किन्तु उसके दोनों पदों का विग्रह विशेषण-विशेष्य-पदों की तरह होगा, न कि बहुव्रीहि के ढंग पर,
अन्य पद की प्रधानता की तरह। जैसे- अति वृष्टि= अतिवृष्टि (प्रादितत्पुरुष)।
द्रष्टव्य: (i) बहुव्रीहि के समस्त पद में दूसरा पद ‘धर्म’ या ‘धनु’ हो, तो वह आकारान्त हो जाता है; जैसे: प्रिय है धर्म जिसका = प्रियधर्मा; सुन्दर है धर्म जिसका = सुधर्मा; आलोक ही है धनु जिसका = आलोकधन्वा।
(ii) सकारान्त में विकल्प से ‘आ’ और ‘क’ किन्तु ईकारान्त, उकारान्त और ऋकारान्त समासान्त पदों के अन्त में निश्र्चितरूप से ‘क’ लग जाता है। जैसे: उदार है मन जिसका = उदारमनस, उदारमना या उदारमनस्क; अन्य में है मन जिसका = अन्यमना या अन्यमनस्क; ईश्र्वर है
कर्ता जिसका = ईश्र्वरकर्तृक; साथ है पति जिसके; सप्तीक; बिना है पति के जो = विप्तीक।
बहुव्रीहि समास की विशेषताएँ
बहुव्रीहि समास की निम्नलिखित विशेषताएँ है:
- यह दो या दो से अधिक पदों का समास होता है।
- इसका विग्रह शब्दात्मक या पदात्मक न होकर वाक्यात्मक होता है।
- इसमें अधिकतर पूर्वपद कर्ता कारक का होता है या विशेषण।
- इस समास से बने पद विशेषण होते है। अतः उनका लिंग विशेष्य के अनुसार होता है।
- इसमें अन्य पदार्थ प्रधान होता है।
(5) द्वन्द्व समास
जिस समस्त-पद के दोनों पद प्रधान हो तथा विग्रह करने पर ‘और’, ‘अथवा’, ‘या’, ‘एवं’ लगता हो वह द्वन्द्व समास कहलाता है।
समस्त-पद | विग्रह |
---|---|
रात-दिन | रात और दिन |
सुख-दुख | सुख और दुख |
दाल-चावल | दाल और चावल |
भाई-बहन | भाई और बहन |
माता-पिता | माता और पिता |
ऊपर-नीचे | ऊपर और नीचे |
गंगा-यमुना | गंगा और यमुना |
दूध-दही | दूध और दही |
आयात-निर्यात | आयात और निर्यात |
देश-विदेश | देश और विदेश |
आना-जाना | आना और जाना |
राजा-रंक | राजा और रंक |
पहचान: दोनों पदों के बीच प्रायः योजक चिह्न (Hyphen (-)) का प्रयोग होता है। द्वन्द्व समास में सभी पद प्रधान होते है। द्वन्द्व और तत्पुरुष से बने पदों का लिंग अन्तिम शब्द के अनुसार होता है।
द्वन्द्व समास के भेद
द्वन्द्व समास के तीन भेद है:
- इतरेतर द्वन्द्व
- समाहार द्वन्द्व
- वैकल्पिक द्वन्द्व
(i) इतरेतर द्वन्द्व: वह द्वन्द्व, जिसमें ‘और’ से सभी पद जुड़े हुए हो और पृथक् अस्तित्व रखते हों, ‘इतरेतर द्वन्द्व’ कहलता है।
इस समास से बने पद हमेशा बहुवचन में प्रयुक्त होते है; क्योंकि वे दो या दो से अधिक पदों के मेल से बने होते है।
जैसे: राम और कृष्ण = राम-कृष्ण
ऋषि और मुनि = ऋषि-मुनि
गाय और बैल = गाय-बैल
भाई और बहन = भाई-बहन
माँ और बाप = माँ-बाप
बेटा और बेटी = बेटा-बेटी इत्यादि।
यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि इतरेतर द्वन्द्व में दोनों पद न केवल प्रधान होते है, बल्कि अपना अलग-अलग अस्तित्व भी रखते है।
(ii) समाहार द्वन्द्व: समाहार का अर्थ है समष्टि या समूह। जब द्वन्द्व समास के दोनों पद और समुच्चयबोधक से जुड़े होने पर भी पृथक-पृथक
अस्तित्व न रखें, बल्कि समूह का बोध करायें, तब वह समाहार द्वन्द्व कहलाता है।
समाहार द्वन्द्व में दोनों पदों के अतिरिक्त अन्य पद भी छिपे रहते है और अपने अर्थ का बोध अप्रत्यक्ष रूप से कराते है।
जैसे: आहारनिद्रा = आहार और निद्रा (केवल आहार और निद्रा ही नहीं, बल्कि इसी तरह की और बातें भी);
दालरोटी = दाल और रोटी (अर्थात भोजन के सभी मुख्य पदार्थ);
हाथपाँव = हाथ और पाँव (अर्थात हाथ और पाँव तथा शरीर के दूसरे अंग भी )
इसी तरह नोन-तेल, कुरता-टोपी, साँप-बिच्छू, खाना-पीना इत्यादि।
कभी-कभी विपरीत अर्थवाले या सदा विरोध रखनेवाले पदों का भी योग हो जाता है। जैसे: चढ़ा-ऊपरी, लेन-देन, आगा-पीछा, चूहा-बिल्ली इत्यादि।
जब दो विशेषण-पदों का संज्ञा के अर्थ में समास हो, तो समाहार द्वन्द्व होता है। जैसे: लंगड़ा-लूला, भूखा-प्यास, अन्धा-बहरा इत्यादि।
उदाहरण: लँगड़े-लूले यह काम नहीं कर सकते; भूखे-प्यासे को निराश नहीं करना चाहिए; इस गाँव में बहुत-से अन्धे-बहरे है।
द्रष्टव्य: यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि जब दोनों पद विशेषण हों और विशेषण के ही अर्थ में आयें तब वहाँ द्वन्द्व समास नहीं होता, वहाँ कर्मधारय समास हो जाता है। जैसे- लँगड़ा-लूला आदमी यह काम नहीं कर सकता; भूखा-प्यासा लड़का सो गया; इस गाँव में बहुत-से लोग अन्धे-बहरे हैं – इन प्रयोगों में ‘लँगड़ा-लूला’, ‘भूखा-प्यासा’ और ‘अन्धा-बहरा’ द्वन्द्व समास नहीं हैं।
(iii) वैकल्पिक द्वन्द्व: जिस द्वन्द्व समास में दो पदों के बीच ‘या’, ‘अथवा’ आदि विकल्पसूचक अव्यय छिपे हों, उसे वैकल्पिक द्वन्द्व कहते है।
इस समास में बहुधा दो विपरीतार्थक शब्दों का योग रहता है। जैसे- पाप-पुण्य, धर्माधर्म, भला-बुरा, थोड़ा-बहुत इत्यादि। यहाँ ‘पाप-पुण्य’ का अर्थ ‘पाप’ और ‘पुण्य’ भी प्रसंगानुसार हो सकता है।
(6) अव्ययीभाव समास
अव्ययीभाव का लक्षण है – जिसमे पूर्वपद की प्रधानता हो और सामासिक या समास पद अव्यय हो जाय, उसे अव्ययीभाव समास कहते है।सरल शब्दो में – जिस समास का पहला पद (पूर्वपद) अव्यय तथा प्रधान हो, उसे अव्ययीभाव समास कहते है।
इस समास में समूचा पद क्रियाविशेषण अव्यय हो जाता है। इसमें पहला पद उपसर्ग आदि जाति का अव्यय होता है और वही प्रधान होता है। जैसे: प्रतिदिन, यथासम्भव, यथाशक्ति, बेकाम, भरसक इत्यादि।
पहचान: पहला पद अनु, आ, प्रति, भर, यथा, यावत, हर आदि होता है।
अव्ययीभाववाले पदों का विग्रह: ऐसे समस्तपदों को तोड़ने में, अर्थात उनका विग्रह करने में हिन्दी में बड़ी कठिनाई होती है, विशेषतः संस्कृत के समस्त पदों का विग्रह करने में हिन्दी में जिन समस्त पदों में द्विरुक्तिमात्र होती है, वहाँ विग्रह करने में केवल दोनों पदों को अलग कर दिया जाता है।
जैसे: प्रतिदिन – दिन-दिन
यथाविधि – विधि के अनुसार
यथाक्रम – क्रम के अनुसार
यथाशक्ति – शक्ति के अनुसार
बेखटके – बिना खटके के
बेखबर – बिना खबर के
रातोंरात – रात ही रात में
कानोंकान – कान ही कान में
भुखमरा – भूख से मरा हुआ
आजन्म – जन्म से लेकर
पूर्वपद-अव्यय | + | उत्तरपद | = | समस्त-पद | विग्रह |
---|---|---|---|---|---|
प्रति | + | दिन | = | प्रतिदिन | प्रत्येक दिन |
आ | + | जन्म | = | आजन्म | जन्म से लेकर |
यथा | + | संभव | = | यथासंभव | जैसा संभव हो |
अनु | + | रूप | = | अनुरूप | रूप के योग्य |
भर | + | पेट | = | भरपेट | पेट भर के |
हाथ | + | हाथ | = | हाथों-हाथ | हाथ ही हाथ में |
(7)नत्र समास:- इसमे नहीं का बोध होता है। जैसे अनपढ़, अनजान , अज्ञान ।
समस्त-पद | विग्रह |
---|---|
अनाचार | न आचार |
अनदेखा | न देखा हुआ |
अन्याय | न न्याय |
अनभिज्ञ | न अभिज्ञ |
नालायक | नहीं लायक |
अचल | न चल |
नास्तिक | न आस्तिक |
अनुचित | न उचित |
Good explanation