अपठित गद्यांश V
अपठित का अर्थ होता है ‘जो पढ़ा नहीं गया हो’। यह किसी पाठ्यक्रम की पुस्तक में से नहीं लिया जाता है। यह कला, विज्ञान, राजनीति, साहित्य या अर्थशास्त्र, किसी भी विषय का हो सकता है। इनसे सम्बन्धित प्रश्न पूछे जाते हैं। इससे छात्रों का मानसिक व्यायाम होता है और उनका सामान्य ज्ञान भी बढ़ता है। इससे छात्रों की व्यक्तिगत योग्यता व अभिव्यक्ति की क्षमता बढ़ती है।
विधि
अपठित गद्यांश पर आधारित प्रश्नों को हल करने के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना आवश्यक है।
- दिए गए गद्यांश को ध्यान से पढ़ना चाहिए।
- गद्यांश पढ़ते समय मुख्य बातों को रेखांकित कर देना चाहिए।
- गद्यांश के प्रश्नों के उत्तर देते समय भाषा एकदम सरल होनी चाहिए।
- उत्तर सरल व संक्षिप्त व सहज होने चाहिए। अपनी भाषा में उत्तर देना चाहिए।
- प्रश्नों के उत्तर कम-से-कम शब्दों में देने चाहिए, साथ हीं गद्यांश में से हीं उत्तर छाँटने चाहिए।
- उत्तर में जितना पूछा जाए केवल उतना हीं लिखना चाहिए, उससे ज़्यादा या कम तथा अनावश्यक नहीं होना चाहिए। अर्थात, उत्तर प्रसंग के अनुसार होना चाहिए।
- यदि गद्यांश का शीर्षक पूछा जाए तो शीर्षक गद्यांश के शुरु या अंत में छिपा रहता है।
- मूलभाव के आधार पर शीर्षक लिखना चाहिए।
अपठित गद्यांश Hindi Unseen Passages V [01]
अच्छे या बुरे का निर्माण हम स्वयं करते हैं। हमारे आपके ही संकल्प दूसरों के संकल्पों से टकराकर तदनुसार वातावरण बनाने के लिए होते हैं। हमें सदैव शुभ संकल्प ही करने चाहिए। यजुर्वेद के एक मंत्र में यही प्रार्थना की गई है कि मेरे मन के संकल्प ‘भद्रं भद्रं न आभार’ – हे प्रभो! हमें बराबर कल्याण को प्राप्त कराइए। यहाँ कल्याण शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में हुआ है। केवल भौतिक संसाधनों की उपलब्धि ही नहीं, वरन् पारमार्थिक सत्य की सिद्धि ही सच्चे अर्थों में कल्याण है। संत सभा के सेवन तथा हरि-गुन-गायन से ही इसकी उपलब्धि संभव है। सफलता के लिए केवल संकल्प ही पर्याप्त नहीं है, तदनुरूप आचरण एक ऐसे दर्पण के सदृश है, जिसमें हर मनुष्य को अपना प्रतिबिंब दिखाई देता है। मनुष्य के कर्म ही उसके विचारों की सबसे अच्छी व्याख्या है। हम जिस वस्तु की कामना करते हैं, उसी से हमारे कर्म की उत्पत्ति है। ‘गीता में कर्म की व्याख्या के रूप में कहा गया है कि इस प्रकृति में जो कुछ भी परिवर्तित होता है वह सब ‘क्रिया’ है और क्रियाओं का पुंज पदार्थ है। वे ही कर्म चाहे कायिक हों या वाचिक अथवा मानसिक इष्ट, अनिष्ट तथा मिश्रित फल देने वाले होते हैं। उन कर्मों में करने के जो भाव हैं, वे कर्ता में ही रहते हैं। ये ‘कर्म’ और ‘भाव’ शुभ और अशुभ दोनों होते हैं। शुभ कर्म और भाव मुक्ति देने वाले तथा अशुभ कर्म और भाव पतन करने वाले होते हैं।
प्रश्न:
- मनुष्य के विचारों की व्याख्या किसके द्वारा होती है?
- किसमें हर मनुष्य को अपना प्रतिबिंब दिखाई देता है?
- सच्चे अर्थ में कल्याण का क्या अर्थ है?
- गीता के अनुसार कायिक, वाचिक, मानसिक कर्म कैसे फल देने वाले होते हैं?
- यजुर्वेद में क्या प्रार्थना की गई है?
- (i) गद्यांश में से विलोम शब्दों के दो जोड़े छाँटकर लिखिए।
(ii) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक क्या हो सकता है?